12 अप्रैल, 2023

लोक साहित्य और नारी : पूर्वोत्तर भारत

लोक साहित्य और नारी : पूर्वोत्तर भारत 

                                                 

                                        

                                                                                                 डॉ. गोमा देवी शर्मा

                                                                                                            गुवाहाटी

      पूर्वोत्तर भारत आठ राज्य रूपी मनकों की सुंदरतम एक माला है। यहाँ की नैसर्गिक प्राकृतिक छटा हर पथिक के दिलों में अमिट छाप बनकर बस जाता है। प्राचीनकाल से इस भूमि में विभिन्न पौराणिक घटनाएँ घटित हुई हैं। इन राज्यों में लोक साहित्य का विकास भी प्रचुर मात्रा में हुआ है जो इस भूमि के ज्ञान साहित्य का परिचायक हैं। पूर्वोत्तर भारत का हर राज्य भारत के अन्य राज्यों की तरह विविध बिडंबनाओं भरे नारी जीवन को उजागर करता है। यहाँ के जनजीवन में नारी का विशिष्ट रूप विद्यमान है। मेघालय की खासी जनजाति जहाँ मातृ सत्तात्मक है, तो वहीं मणिपुर तथा अन्य राज्य नारी के प्रति अपनी उदार दृष्टिकोण रखते हैं। इन प्रांतों में विकसित लोक साहित्य में नारी के विविध रूप देखने को मिलते हैं। यहाँ पूर्वोत्तर भारत के अलग-अलग राज्यों की लोक मान्यताओं एवं लोक साहित्य में नारी से स्वरूप को उजागर करने का प्रयास किया गया है।

असमिया लोकसाहित्य में नारी

      असम राज्य पूर्वोत्तर भारत का प्रवेश द्वार है। असमिया, बंगाली, बोडो, दिमासा, मिसिंग, कछारी, विष्णुप्रिया मणिपुरी, गोर्खा, टिवा, राभा, मिरी, चाय जनजाति आदि इस राज्य में जीवन यापन करने वाली जनजातियाँ हैं। असमिया लोक कथा में नारी बेटी, माता, भगिनी, पत्नी, राक्षसी आदि विविध रूपों में वर्णित है। इस भूमि में विकसित लोककथा, लोकगाथा, लोकगीत, लोक नाटक, लोक मान्यता आदि से यह स्पष्ट होता है कि प्राचीनकाल से ही असमिया समाज में नारी का स्थान सर्वोच्च रहा है और वर्तमान समाज में भी यह परंपरा बरकरार है। एक विशिष्ट शक्ति पीठ के रूप में प्रसिद्ध माता कामाख्या देवी का भव्य मंदिर नारी गरिमा को मंडित करने वाला महत्वपूर्ण स्थल है। असमिया लोकोक्ति सोत पो, तेरह नारी, तेहे परीबा कुँहियार खेती हो या आशीर्वचन बेटा पुत्र बाढक - नारी के स्रष्टा रूप को दर्शाता है। असम प्राचीनकाल से ही तंत्र साधना का केंद्र रहा है। साधना में शक्ति की कामना करना नारी सम्मान का परिचायक है। यहाँ प्रचलित लोक नाटकों में महिलाओं का स्वतंत्र अस्तित्व मुखरित होता है। बिहू गीत एवं नृत्य राग-अनुराग तथा स्त्री वर चयन की स्वतंत्रता को दर्शाते हैं। मिसिंग जनजाति में प्रचलित आंग-बांग गीत में -जन्मर सकलो भर कानधात आरू गर्भत लोई जी सकलो परियालर जन्मर मातृस्वरीप तोमाक वंदे - कहकर मातृ उपासना की जाती है। बडो जनजाति में प्रचलित लोककथाओं में नारी को प्रमदा, मानव संपदा को आगे बढ़ाने वाली, पुरुषों की मनोकामना पूर्ण करने वाली के रूप वर्णित किया गया है। आलिरी दाम्रा, चार भाइयों की कथा, गम्बीरा वीर आदि कथाओं में नारी के विभन्न स्वरूप के दर्शन मिलते हैं।

      ऋग-वेद के यम यमी के प्रसंग के समान ही डिमासा लोककथाओं में नारी के महिमामयी रूप को दर्शाया गया है। डिश्रु नाम की कन्या की सुंदरता पर मोहित होकर अपने ही पिता हरिराम ने उससे विवाह का प्रस्ताव रखा। प्ता के कुत्सित प्रस्ताव को ठुकराते हुए डिश्रु रिश्तों की रक्षा बचाने हेतु घर-द्वार त्यागकर तपस्विनी बन जाती है। पूर्वोत्तर की लोककथाओं में उच्छृंखलता के लिए कोई स्थान नहीं मिलता। राभा समुदाय की एक लोक गीत हायमारू में देवियों के साथ प्रचीन वीरांगनाओं की स्तुति गाई जाती है। पोल खुल गई कथा में मौलाना के पाखंड का पोल मेजबान की बीबी खोल देती है, वहीं निन्यानब्बे के चक्कर लोककथा में सौ करने के चक्कर में अपना सुख-चैन गँवा बैठी कल्याणी परिवार को सँवारने में महिला की भूमिका को दर्शाती है। कोउला और बोउगा लोककथा में अकेली औरत बड़ी चतुराई से लोमड़ी से निपटती है। बोडो लोककथा सुअर और कुत्ते का दाना में पति पत्नी के द्वारा सुअर और कुत्ते को चतुराई से काम पर लगवाना, अरबी की फसल कहानी में पति-पत्नी का मिलकर लोमड़ी से पार पाना- आदि कथाओं में नारी-पुरुष समानता के भाव व्यक्त हुए हैं। कार्बी लोककथा सरएट-कंबन-हीहीपी नारी प्रधान कहानी है। इसमें इर्ष्यालु और इमान्दार नारी का चित्रण हुआ है।  मिसिङ लोककथा आकाश कैसे उँचा हुआ - में बूढ़ी औरत के धान कूटने वाले मूसल लगने के कारण आकाश धरती से बहुत दूर चले जाने का उल्लेख है तो कछारी लोककथा नारी का सम्मान करो में पति से पत्नी को चतुर बताया गया है।

मणिपुर की लोकथाओं में स्त्री चेतना

      मणिपुर की भूमि विभिन्न जाति-जनजातियों की क्रीड़ास्थली है। यहाँ मुख्य रूप से मूल मणिपुरी या मितै, नागा, कुकी, गोर्खा, पांगल, कोम, कबुई, मार, पाइते, हिंदीभाषी आदि निवास करते हैं। इन समुदायों में प्रचलित लोक साहित्य एवं लोक मान्यताओं में नारी के विबिन्न स्वरूपों का साक्षात्र होता है। इन समुदायों में प्रचलित लोकमान्यताओं, लोककथाओं आदि में प्रचुर मात्रा में नारी के विविध रूपों के दर्शन होते है। वह देवी, प्रेयसी, बहन, माता, भगिनी, राक्षसी जैसे विभिन्न किरदारों में नारी सजी है। इन लोककथाओं मे नारी-पुरुष का स्वरूप समाज में बराबर रूप में दिखाई देता है। मणिपुर में देवी उपासना प्राचीनकाल से होती आई है। इससे नारी शक्ति का महत्व समाज में स्वत: बढ़ जाता है। उत्तर भारत की सामाजिक परंपरा के मुकाबले मणिपुरी समाज नारी को लेकर सदा उदार रहा है। यहाँ इमोइनु पूजा धूमधाम से की जाती है। मान्यता यह है कि इमोइनु घर की देवी है। उन्हें खुश करने से घर-में धन-धान्य और सुख-शांति की प्राप्ति होती है। दुर्गा पूजा, सरस्वती पूजा, लक्ष्मी पूजा आदि भी यहाँ असीम आस्था के साथ की जाती है। ये विशेष अवस समाज में नारी के महत्व को दर्शाते हैं।

      मणिपुर में प्रचलित लोककथाओं में नारी के परिश्रमी एवं बुद्धि चातुर्य को दर्शाया गया है। सहेली ढिबरी लोककथा में एक बुढ़िया रात भर चरखा चलाती है, उसके घर में एक चोर घुसकर ढिबरी के पीछे छुप जाता है। बुढ़िया डरकर ढिबरी को सहेली के रूप में आवाज देती हुई एक कथा सुनाती है। कथा सुनाते हुए बुढ़िया जोर-जोर से चिल्लाती है - मुहल्ले वालो, चोर... चोर... चोर। तब मुहल्ले के सभी लोग आ जाते हैं और चोर को पकड़ लेते हैं। इसमें नारी समाज को बचाने वाली शक्ति के रूप में वर्णित है।

      इसी तरह शंद्रेम्बी-चाइश्रा लोककथा में अच्छी स्त्री एवं ईर्ष्या से ग्रस्त स्त्री के बारे में ज्ञान देती है। शंद्रेम्बी अपनी सौतेली बहन चाइश्रा से बहुत प्यार करती है पर लेकिन चाइश्रा की माँ शंद्रेम्बी को बहुत कष्ट देती है। एक दिन राज्य का राजा शंद्रेम्बी को देख लेता है, उसके सौंदर्य से मोहित होकर उससे विवाह कर लेता है। सौतेली माँ को यह नागवार गुजरता है। वह अपनी बेटी को रानी बनाना चाहती है। एक दिन खाने में शंद्रेंबी को मायके में बुलाकर माँ-बेटी खौलता पानी डालकर  उसे मार डालती हैं, लेकिन उसकी आत्मा कबूतर बनकर उड़ जाती है। इधर चाइश्रा शंद्रेम्बी के वस्त्र और गहने पहन राजा के पास शंद्रेम्बी बनकर चली जाती है। कबूतर बनी शंद्रेम्बी राजा को सब कहानी बयाँ कर देती है। राजा चायश्रा को दंडित करते हैं और पुन: शंद्रेम्बी को प्राप्त करते हैं। लाङ्मैदोन पक्षी लोककथा भी एक ऐसी लोककथा है जिसमें सौतेली माँ के अत्याचार से दम तोड़केर नोङ्दोन्नू नामक लड़की लाङ्मैदोन पक्षियों के झुंड में शामिल होकर चली जाती है। कोम, कबुई, गोर्खा, नागा, गोर्खा आदि जनजाति की लोककथाओं में भी नारी के विविध स्वरूपों का वर्णन मिलता है। इस प्रकार मणिपुर की लोककथाओं में सद्-नारी से लेकर दुर्-नारी का चित्रण हुआ है। इससे समाज में नारी-पुरुष समानता के भाव का बोध होता है।

त्रिपुरा की लोककथाओं में नारी का स्वरूप

      त्रिपुरा राज्य हमेशा से पितृसत्तात्मक रहा है। यहाँ सनातन धर्म ने त्रिपुरसुंदरी के भव्य मंदिर समाज में नारी के स्थान का परचम तो लहराया लेकिन समाज ने नारी को विशेष दर्जे से सदा वंचित किया है। यहाँ नारी पूज्य होते हुए भी पुरुषों से प्रताड़ित रही है। यह स्थिति कई लोककथाओं में उद्धृत हुई है। कांचनमाला एक ऐसी दरबारी लोककथा है जिसमें कांचनमाला नामक औरत को अपने ही जेठ के द्वारा यौन शोषित होने पड़ा। चेथुआंग लोककथा में बड़ा भाई अपनी ही बहन पर मोहित होता है और शादी का प्रस्ताव रखता है। पता चलने पर बहन इस कुप्रस्ताव को ठोकर मारते हुए जंगल की ओर पलायन करती है और ईश्वरीय कृपा से पक्षी बन जाती है। अचाई लोककथा पिता के निकम्मेपन को निभाने के लिए झूम खेती में दिन भर परिश्रम करने वाली बहनों की आर्थिक एवं मानसिक दशा का वर्णन करती है और बड़ी बहन अजगर से विवाह कर लेती है। निकम्मा पिता इसे अपना अपमान मानकर अपने दामाद की हत्या कर देता है। इससे क्षुब्ध होकर सभी बहनें आत्महत्या कर लेती हैं।

अरुणाचल प्रदेश

      अरुणाचल के प्राचीन मान्याताओं में नारी को विशेष दर्जा प्रदान किया गया है। यहाँ मनाए जाने वाले पर्व त्योहारों के अवसर पर विभिन्न देवियों की पूजा-आराधना इस प्रांत में नारी की महिमा को दर्शाते हैं। निशी समुदाय में न्योकुम नामक पर्व मनाया जाता है जिसमें संपूर्ण पृथ्वी की कल्याण की कामना की जाती है। इसी तरह तागिन जनजाति द्वारा मनाय जाने वाला सी दौन्यी पर्व में पृथ्वी और सूर्य की पूजा की जाती है। यह समाज में नर-नारी के समान महत्व को दर्शाते हैं। इसी तरह मोपिन त्योहार में आन्यि पिंकू पिंत देवी की उपासना की जाती है जिन्होंने समस्त मानव जाति को खेती करना सिखाया है।

      अरुणाचल प्रदेश की विभिन्न जनजातियों में प्रचलित लोककथाओं में नारी के विभिन्न रूपों के दर्शन पाए जाते हैं। गालो जनजाति में प्रचलिक तोपो गोने शीर्षक लोककथा में थोड़ी सी चूक के लिए नारी को इतनी बड़ी सजा की हकदार बताया है कि वह शिला बन जाती है। इसी तरह जाईबोने शीर्षक लोककथा जाईबोने नामक सुंदर नारी पात्र पर केंद्रित है। वह एकनिष्ठ प्रेमी है। दिदिकुब नामक खलनायक उसे पाना चाहता है। प्रेम में नाकाम दिदिकुब दोनों प्रेमी-प्रेमिका को मरवा देता है। यहाँ नारी की ईच्छा को पुरुषसत्ता द्वारा कुचलने का प्रयास किया गया है। अरुणाचल के विभिन्न जनजातियों की मान्यता में नारी कहीं पूज्य देवी के रूप में चित्रित है, तो कहीं कमजोर, मायावी, अविवेकी, विनाशकारी नारी के रूप में भी चित्रित है। इससे यह स्पष्ट होता है कि अरुणाचल प्रदेश की लोक मान्यताओं में भी देश के अन्य भागों की तरह नारी का स्वरूप विविध बिडंबनाओं से भरा हुआ है। इसी प्रकार सिक्किम, नागालैंड, मिजोरम आदि राज्यों में प्रचलित लोक मान्यताओं एवं लोक साहित्य में नारी को अनेक रूपों में चित्रित किया है। यही मान्यताएँ आज भी नारी जीवन को संचालित कर रही हैं।

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आधार ग्रंथ

1. Status and Empowerment of Tribal Women in Tripura -Dr. Krishn Nath Bhoumik, Kalpaj Publication, Delhi, 2005

2. देवराज, मणिपुरी लोककथा संसार, राधाकृष्ण प्रकाशन प्राइवेट लिमिटेड, नई दिल्ली, प्रथम संस्कण- 1999

3. 21 श्रेष्ठ लोककथाएँ, असम-डा.गोमा देवी शर्मा -डायमंड प्रकाशन, दिल्ली, 2022

4. बी. जयंतकुमार शर्मा (सं), फुङ्गावारी शिङ्बुल, साहित्य अकादमी, नई दिल्ली, संस्कर- 2013

5. भारतीय अस्मिता और पूर्वोत्तर का लोक कथा जगत - डॉ. स्वर्ण अनील, कंचनजंघा, 2021

6. डॉ. वीरेन्द्र परमार -असम का लोक साहित्य, जनकृति ई-पत्रिका।

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लेखक परिचय

      लेखिका आर्मी पब्लिक स्कूल नारंगी में पीजीटी शिक्षिका हैं। उनके नेपाली भाषा र संस्कृति (2012), भारतीय नेपाली साहित्य का विश्लेषणात्मक इतिहास (2017,18), मणिपुरमा नेपाली साहित्य: एक अध्ययन (2016), शून्य प्रहर का साक्षी (2022), 21 श्रेष्ठ लोककथाएँ असम (2022), कोरोना की पहली दस्तक (डायरी), ईशान-आलोक (पूर्वोत्तर भारत की चुनिन्दा लोककथाओं का संकलन) पुस्तकें, पाँच संपादित पुस्तकें, दर्जनों हिंदी एवं नेपाली भाषा में लेख प्रकाशित हो चुके हैं। लेखन के लिए असम सरकार द्वारा असम गौरव पुरस्कार, पूर्वोत्तर हिंदी सेवी पुरस्कार, हाम्रो स्वाभिमान ट्रस्ट द्वारा राष्ट्रीय पुरस्कार जैसे पुरस्कारों से सम्मानित किया जा चुका है।  

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25 मार्च, 2023

 

                                                            नेपाली भाषा : एक अध्ययन


                                                डा.गोमा

                                                       गुवाहाटी

      नेपाली भाषा का उद्गम स्थल नेपाल है। नेपाल शब्द के विभिन्न अर्थ लगाते हुए इसकी व्युत्पत्ति का विवरण दिया जाता है। प्राचीन काल में ने नामक ऋषि ने इस क्षेत्र को संरक्षण प्रदान किया था। कालांतर में ने द्वारा पालित होने के कारण इस प्रदेश का नाम नेपाल पड़ा। नेपाल देश में व्यहृत भाषा होने के कारण इसे नेपाली भाषा के नाम से जाना जाता है। अपनी यात्रा के सफर में नेपाली भाषा प्रारम्भ से लेकर वर्तमान तक विभिन्न नामों से अभिहित होती हुई आई है। सन् 1934 तक नेपाल में नेपाली भाषा को गोर्खा भाषा या गोर्खाली के नाम से जाना जाता था जबकि भारत में सन् 1917 से इसे नेपाली भाषा के नाम से जाना जाने लगा। दिलचस्प बात यह है कि इस भाषा का जन्म नेपाल में हुआ पर इसे नेपाली नाम संज्ञा भारत से प्राप्त हुई है। यह भारतीय संविधान की आठवीं अनुसूची में स्थान प्राप्त भाषाओं में से एक है। 

नेपाली भाषा का व्यवहार क्षेत्र - नेपाली भाषा नेपाल राष्ट्र की राष्ट्रभाषा और राजभाषा है। यह भारत के पश्चिम बंगाल राज्य में सह-राजभाषा और सिक्किम में राजभाषा के रूप में स्वीकृत है। पूर्वोत्तर भारत में असम, नागालैंड, मेघालय, मणिपुर, नागालैंड, अरुणाचल प्रदेश में बड़े पैमाने पर यह बाषा बोली जीती है। इसके अलावा उत्तराखंड, बनारस, हिमाचल प्रदेश के अलावा भारत के अन्य राज्यों में भी इस भाषा को बोलने वाले लोग अपना जीवन यापन करते हैं। भूटान तथा म्यानमार जैसे देशों में भी बड़ी संख्या में यह भाषा बोली जाती है। वर्तमान में अमेरिका, हङकङ, मलेशिया आदि देशों में भी नेपाली भाषा व्यवहार में लाई जाती है।

 

नेपाली भाषा की लिपि - नेपाली भाषा ब्राह्मी से निसृत देवनागरी लिपि में लिखी जाती है। इसके लिखने का क्रम बाएँ से दाएँ है। यह  लिपि मुख्यतः भारत और नेपाल की भाषाओं को लिखने के लिए उपयोग की जाती है। इसमें नेपाली के अलावा हिंदी, मराठी, संस्कृत, पालि, भोजपुरी, नेवारी, कोंकणी, मैथिली, कश्मीरी, बोडो, विष्णुप्रिया मणिपुरी आदि अन्य भारतीय भाषाएँ लिखी जाती हैं। यह ध्वनि या उच्चारण पर आधारित एक वैज्ञानिक लिपि है, इसमें जो भी उच्चरित किया जाता है, उसे आसानी से लिखा जा सकता है। इसकी वैज्ञानिकता स्वयंसिद्ध है।

 

 नेपाली भाषा समूह  - नेपाली भाषा भारतीय आर्यभाषा परिवार की एक भाषा है। अन्य आधुनिक आर्यभाषाओं की तरह नेपाली भाषा भी संस्कृत की एक कन्या है। यह भारोपीय या आर्यभाषा परिवार के आर्य-ईरानी शाखा से संस्कृत, पाली, प्राकृत तथा अपभ्रंश होते हुए विकसित एक आधुनिक आर्य भाषा है। भाषाविद जॉर्ज ग्रियर्सन, सुनीतिकुमार चटर्जी एवं महानन्द सापकोटा जैसे विद्वानों ने नेपाली भाषा को प्राकृत अपभ्रंश के विविध रूपों में से खस-प्राकृत से विकसित भाषा माना है। 

अपभंश से विकसित आधुनिक आर्यभाषाओं का वर्गीकरण -

              अपभ्रंश                   आधुनिक भाषा उपभाषा

              शौरशेनी        पश्चिमी हिंदी, राजस्थानी, पहाड़ी, कुमाउँनी, गुजराती

              पैशाची         लहन्दा, पंजाबी

              ब्राचड़          सिंधी

              महाराष्ट्री       मराठी  

              मागधी         बिहारी, बांगला, उड़िया, असमीया

              अर्धमागधी      पूर्वी हिन्दी

       डॉ. भोलानाथ तिवारी, महानंद पौड्याल जैसे विद्वानों ने शौरसेनी से विकसित पहाड़ी भाषा को ही खस अपभ्रंश माना है जिससे पहाड़ी भाषाएँ विकसित हुई हैं। पहाड़ी भाषा के तीन रूप प्राप्त होते हैं जिनसे वर्तमान में प्रचलित विभिन्न पहाड़ी भाषाएँ विकसित हुई हैं-

              पूर्वी पहाड़ी - नेपाली (खस)

              केन्द्रीय पहाड़ी - गढ़वाली, कुमाउँनी

              पश्चिमी पहाड़ी - कश्मीरी, जौनसारी, सिरमौरी, कहलुरी, कांगड़ी

खस शब्द का पौराणिक आधार - संस्कृत साहित्य में खस (खश, खष, खशीर) शब्द का प्रयोग मिलता है। महाभारत तथा हरिवंश पुराण में खस समुदाय का उल्लेख मिलता है। विद्वानों के द्वारा बताए गए तथ्यों के अनुसार मार्कण्डेय पुराण में खस को पहाड़ी जाति माना गया है। यह भी कहा गया है कि ये भारत के उत्तर पश्चिमी प्रांतों के वासिन्दा थे। भरत मुनि के नाट्यशास्त्र तथा बराहमिहिर रचित बृहत्संहिता में भी खस जाति तथा खस भाषा का उल्लेख मिलता है।

                हिमालयी प्रदेशों में प्राचीन काल से ही नेपाली भाषा का अस्तित्व होने के पर्याप्त प्रमाण प्राप्त होते हैं। प्राचीन इतिहास के अनुसार तिब्बत, पश्चिमी नेपाल तथा वर्तमान भारत के कुछ पहाड़ी प्रांतों तक खस जनजाति का अस्तित्व था। इस प्रांत को तिब्बती भाषा में ङारी (Ngari) प्रांत, नेपाली में नाग्री तथा संस्कृत में खारी प्रदेश कहा जाता था। तिब्बत के इतिहास के अनुसार इस प्रांत का विस्तार हिमाचल प्रदेश के किन्नौर, लाहुल तथा स्पीति तक था। इतिहासविदों के अनुसार खारी प्रदेश कुछ खसों ने नेपाल के कर्णाली तथा महाकाली अंचल में प्रवेश किया और स्थानीय राजा को युद्ध हराकर खस राज्य स्थापित किया। सबसे प्रतापी नागराज खस ने सिंजा नामक स्थान को अपनी राजधानी बनाई। इस प्रदेश में निवास करने वाली जनता पहले से ही खस भाषा बोलती थी। नागराज ने दूर-दूर तक अपने साम्राज्य का विस्तार किया। ऐतिहासिक तथ्य के अनुसार उसका राज्य मध्य हिमालय में जुम्ला, पूर्व में गंडकी नदी, पश्चिम में कुमाउँ - गढ़वाल दक्षिण के तराई क्षेत्र तथा उत्तर में तिब्बत, मानसरोवर के पूर्व में स्थित मायुम दर्रा तक फैला हुआ था। नागराज के उत्तराधिकारियों ने भी इस साम्राज्य का विस्तार किया। खस राज्य का केंद्र सिंजा था। कालांतर में सिंजा राज्य में व्यवहार की जाने वाली खस भाषा को सिंजाली भाषा के नाम से अभिहित किया जाने लगा। इस प्रकार खस भाषा का दूसरा नाम सिंजाली भाषा पड़ा।

       खस साम्राज्य का अस्तित्व ईसा की दसवीं सदी से पंद्रहवीं सदी तक स्वीकारा गया है। पंद्रहवीं सदी में विशाल खस साम्राज्य टूटकर 46 स्वतन्त्र राज्यों में बँट गया जिसे इतिहास में बाइसे र चौबिसे राज्य के नाम से जाना जाता है। इस प्रकार लगभग400  वर्ष तक खस  साम्राज्य  का  अस्तित्व  रहा।

नेपाली भाषा की प्रयुक्त नाम संज्ञाएँ

       खस प्रदेश में बोली जाने वाली भाषा होने के कारण प्रारम्भिक नेपाली भाषा को खस भाषा या खसकुरा कहा जाता था। सिंजा राज्य की भाषा होने के कारण इसे सिंजाली भाषा कहा गया। ईसा की 19वीं शताब्दी में गोर्खा के राजा पृथ्वीनारायण शाह ने विघटित नेपाल को एकीकृत करके विशाल गोर्खा साम्राज्य खड़ा किया। उनकी राजधानी गोर्खा नामक स्थान पर थी। गोर्खा राज्य की राजभाषा बनने के बाद सिंजाली भाषा को गोर्खा भाषा या गोर्खाली भाषा के नाम से जाना जाने लगा। पहाड़ी राज्य नेपाल में बोली जाने वाली भाषा होने के कारण इसे पर्वते भाषा भी कहा गया। आधुनिक काल में आकर गोर्खा भाषा को नेपाली नाम प्राप्त हुआ है। इस भाषा का नेपाली नामकरण करने में भारत की अहम् भूमिका रही है।

नेपाली भाषा का प्रथम नमूना

       आज तक के अनुसंधान में सामने आए तथ्यों के अनुसार नेपाली भाषा का प्राचीनतम नमूना पश्चिम नेपाल के दुल्लू नामक स्थान पर स्थापित शिलालेख में प्राप्त होता है। इसे वहाँ के तत्कालीन राजा दामुपाल ने सन् 981 में अंकित कराया था। इसमें देवनागरी लिपि स्पष्ट रूप में देखी जा सकती है। इससे यह सहज अनुमान लगाया जा सकता है कि ईसा की दसवीं सदी तक नेपाली भाषा अपने अस्तित्व में आ चुकी थी और यह राजभाषा के रूप में स्वीकृत हो चुकी थी। इतिहास के इस पड़ाव से लेकर वर्तमान तक नेपाली भाषा कई रूपों में ढलती हुई आई है। इसे विविध रूपों में ढालने के लिए कई राजनैतिक, सामाजिक, वैज्ञानिक घटनाओं ने कारक तत्व के रूप में काम किया है।

नेपाली भाषा का कालक्रमिक विकास

       नेपाली भाषा के विकासक्रम को निम्नलिखित तीन चरणों में विभाजित करके अध्ययन किया जा सकता है  -

       . प्रारंभिक चरण - सन् 981 से सन् 1400 तक

       . मध्यकालीन चरण - सन् 1401 से सन् 1900 तक

       . आधुनिक चरण - सन् 1901 से 2021 तक

प्रारंभिक चरण - सन् 981 से सन् 1400 तक

                नेपाली भाषा के उद्भव-काल को शिलालेख एवं ताम्रपत्र काल भी कहा जा सकता है। इस काल में भाषा का लिखित नमूना केवल शिलालेखों, ताम्रपत्रों एवं कनकपत्रों में प्राप्त होता है। ये अभिलेख विभिन्न राजाओं के द्वारा उत्कीर्ण कराए गए हैं, अतः इसमें कोई संदेह नहीं है कि उस काल में दरबारी प्रशासनिक भाषा के रूप में नेपाली भाषा व्यवहार में लाई जाती थी। इस भाषा का प्रथम प्रसार काल खस राजाओं का शासन काल है। पश्चिमी नेपाल में खस साम्राज्य स्थापित होने के साथ-साथ खस भाषा के प्रचार-प्रसार का कार्य भी तेजी से होने लगा। राजदरबार में संस्कृत विद्वानों को प्रश्रय दिया जाता था। राज्य में हिंदू तथा बौद्ध धर्मको बराबर सम्मान दिया जाता था। कई अभिलेखों में ॐ मणिपद्मे हूँ के साथ अंकित शासकीय घोषणा इस बात का प्रबल प्रमाण है। विद्वानों का मानना है कि प्राचीनकालीन राजाओं ने भावी संततियों के सामने अपनी कीर्ति कायम रखने के लिए शिलालेखों को उत्कीर्ण करवाना प्रारंभ किया। समय के साथ-साथ ताम्रपत्र एवं कनकपत्रों का प्रचलन भी प्रारंभ हो गया।

      नेपाली भाषा का प्रथम रूप खस भाषा या खस कुरा का प्रथम नमूना पश्चिम नेपाल के दुल्लू नामक स्थान पर प्राप्त शिलालेख में अंकित है, जिसे वहाँ के तत्कालीन राजा दामुपाल ने सन् 981 में उत्कीर्ण करवाया था। इससे स्पष्ट होता है कि ईसा की दसवीं शती तक नेपाली भाषा जन-व्यवहार की भाषा के रूप में खस साम्राज्य में स्थापित हो चुकी थी। अध्येताओं के द्वारा दी गई जानकारी के अनुसार आधुनिक आर्य भाषाओं का समय भी लगभग सन् 1000 से प्रारंभ होता है। इस शिलालेख के अलावा अन्य कई ताम्रपत्र एवं कनकपत्र भी प्राप्त हुए हैं जिनमें देवनागरी लिपि में राज संदेश अंकित है।

        राजा दामुपाल द्वारा शकाब्द 903 अर्थात सन् 981 में उत्कीर्ण शिलालेख नेपाल के दैलेख जिले, दुल्लु नगरपालिका अंतर्गत स्थित कीर्तिखंभ बाजार में कीर्तिस्तंभ के साथ स्थापित है। यह नेपाली भाषा में यथाप्राप्त प्राचीनतम नमूना है। शिला का ऊपरी भाग खण्डित होने के कारण उसमें अंकित अक्षर भी खंडित हैं। बचे भाग में उत्कीर्ण लिखावट इस प्रकार है -

........... दमे

हुँ ........... दा

मु पाल भुपाल

रे भई। किणु

डैको भाइ। सउँ

    पल अडै सा, ९०३ 

(अर्थ - मणिपद्मे हूँ! मैं, राजा दामुपाल ने शकाब्द 903 में कृष्ण तथा सोमपाल दरबारी दो भाइयों के बीच में भूमि का रेखांकन (बँटवारा) कर दिया)

                शिलालेखों, ताम्रपत्रों आदि में उत्कीर्ण भाषिक रूप से यह पता चलता है कि दसवीं शताब्दी तक नेपाली भाषा का मूल स्वरूप प्रायः निर्मित हो चुका था और यह व्यापक रूप से व्यवहार में लाई जाने लगी थी। खस राजाओं के उदय के साथ-साथ इसे प्रशासनिक भाषा होने का गौरव प्राप्त हुआ, जिससे इसका व्यापक प्रचार-प्रसार हुआ। खस भाषा में लिखित कोई भी ग्रंथ प्राप्त नहीं है।

 

मध्यकालीन चरण (सन् 1401 से 1900 तक)

                नेपाली भाषा का मध्यकालीन चरण राजनैतिक अस्थिरता का चरण था। विशाल सिंजा (खस) राज्य का विघटन, 46 स्वतन्त्र रियासतों का अस्तिव में आना, गोर्खा राजा पृथ्वीनारायण शाह के द्वारा विखंडित नेपाल का एकीकरण करना, सीमा विस्तार अभियान, अंग्रेज-नेपाल युद्ध (सन् 1814), सुगौली संधि (सन् 1815-16), भारत में नेपाली भाषी समाज का उदय, नेपाल में निरंकुश राणा शासन, भारत का नेपाली साहित्यिक गतिविधि का केंद्र बनना आदि इस चरण में दिखाई देने वाली प्रमुख घटनाएँ हैं, जिन्होंने नेपाली भाषा की विकास यात्रा को प्रभावित किया है।

       खस साम्राज्य के विघटन के साथ ही तत्कालीन सिंजाली भाषा के भी तीन क्षेत्रीय भेद सामने आए - पूर्वेली भाषिका  या पर्वते बोली, केन्द्रीय भाषिका समूह तथा पश्चिमी भाषिका समूह

       पूर्वेली भाषिका से वर्तमान नेपाली भाषा का विकास हुआ। केन्द्रीय भाषिका समूह को जुम्ली भाषा समूह भी कहा जाता है। जुम्ली, माझखण्डेली, पाल्पाली आदि इस समूह की बोलियाँ हैं। बैतड़ी, दार्चुली, डोटियाली, चिखुङ्गली आदि पश्चिमी भाषिका वा डोटेली भाषिका समूह की बोलियाँ हैं जो आज भी नेपाल के महाकाली तथा सेती अंचल के मध्य भाग में बोली जाती हैं।

       सन 1303 में भारत में चित्तौड़ पर अलाउद्दीन खिलजी के आक्रमण के कारण अपने धर्म तथा जीवन की रक्षा के लिए कई राजपूतों ने नेपाल की ओर पलायन किया। इस काल में नेपाली भाषा भारतीय भाषाओं के साथ व्यापक संपर्क में आने के कारण भाषा में संक्रमण की स्थिति दिखाई देती है।

                नेपाली भाषा के दूसरे चरण में दिखाई देने वाली घटनाओं में नेपाल की राजनीति में पृथ्वीनारायण शाह का आगमन पहली बड़ी घटना है। गोर्खा के राजा पृथ्वीनारायण शाह 46 राज्य में बँटे खस राज्यों तथा नेपाल के अन्य भागों में सक्रिय सभी रियासतों को अपने राज्य में मिलाकर विशाल गोर्खा साम्राज्य की स्थापना की। उनके उत्तराधिकारियों ने भी राज्य के सीमा विस्तार का कार्य जारी रखा। सन् 1815 तक गोर्खा साम्राज्य की सीमा पूर्व में तिस्ता तथा पश्चिम में सतलुज नदी तक फैली हुई थी। गोर्खा साम्राज्य की प्रशासनिक भाषा बनने के कारण सिंजाली भाषा को गोर्खा भाषा या गोर्खाली के नाम से जाना जाने लगा। गोर्खा शासन के विस्तार के साथ-साथ सिंजाली (गोर्खा भाषा) भाषा का विस्तार भी संपूर्ण नेपाल में हुआ। गोर्खा वीरों के शौर्य से प्रभावित होकर रघुनाथ भाट, मौलाराम तोमर, गुमानी पंत जैसे कवियों ने वीर काव्य की रचना की।

भारत में नेपाली भाषा का प्रसार - भारत-नेपाल युद्ध (सन 1814) तथा सुगौली संधि (1815-16) नेपाली भाषा के दूसरे चरण में दिखाई देने वाली दूसरी बड़ी घटना है। नेपाल में सन् 1814 तक विशाल गोर्खा साम्राज्य की सीमा पूर्व में दार्जीलिङ एवं तिस्ता नदी, दक्षिण-पश्चिम में नैनीताल, पश्चिम में कुमाऊँ राजशाही, गढ़वाल राजशाही तथा बशहर क्षेत्र तक फैली हुई थी।

                सन् 1814 (अक्तूबर) में गोर्खा सेना और अंग्रेजों के बीच देहरादून के नालापानी नामक स्थान पर हुए युद्ध में गोर्खा सेना को मुँह की खानी पड़ी। इस युद्ध का अंत सुगौली सन्धि (1815-16) के साथ हुआ। संधि की शर्त के अनुसार नेपाल को अपने कुल भू-भाग का एक तिहाई भाग ईस्ट इण्डिया शासित भारत को सौंपना पड़ा। आज ये प्रांत भारतीय राज्य उत्तराखंड, हिमाचल प्रदेश, पंजाब के कुछ पहाड़ी प्रांत, सिक्किम, दार्जीलिङ, जलपाईगुड़ी आदि हैं। उक्त भू-भाग में जीवन यापन करने वाली लाखों नेपाली जनता मिट्टी के साथ भारतीय नागरिक बन गई। इस प्रकार भारतभूमि में नेपाली भाषी समाज अस्तित्व में आया। इस ऐतिहासिक घटना के बाद गोर्खाभाषा भारत के विभिन्न प्रांतों तक प्रसारित हुई। 

मध्यकालीन नेपाली भाषा और भाषिक नमूना - मध्यकालीन नेपाली भाषा (गोर्खा भाषा) में लिखित कई ग्रंथ प्राप्त हैं जो संस्कृत से अनूदित हैं। ऐसे ग्रन्थों में - खण्ड खाद्य (1401), स्वस्थानी व्रत कथाहा (1601), रामशाहको जीवनी (1606), राजा गगनीराजको यात्रा (1493), बाज परीक्षा (1643), ज्वरोत्पत्ति चिकित्सा (1716) और प्रायश्चित प्रदीप (1723) प्रमुख हैं। इनके अनुवादकों का कहीं उल्लेख नहीं है।

                खण्डखाद्य ज्योतिष शास्त्र से संबंधित ग्रंथ है, यह संस्कृत से अनूदित है। स्वस्थानी व्रत कथाहा धर्म, व्रत आदि से संबंधित है, जिसमें स्वस्थानी नामक देवी की महिमा का वर्णन है। रामशाहको जीवनी राजपूत शाह राजा रामशाह के जीवन चरित्र पर आधारित रचना है। राजा गगनीराजको यात्रा एक यात्रा वृतांत है।  बाज परीक्षा में बाज-पालन व्यवसाय की जानकारी दी गई है। ज्वरोत्पत्ति चिकित्सा वाणी विलास ज्योतिर्विदद्वारा लिखित चिकित्सा संबंधी पुस्तक है। प्रायश्चित प्रदीप के रचनाकार प्रेमनिधि पंत हैं। नैतिकाचार संबंधी यह पुस्तक लेखक के संस्कृत मूल का अनुवाद है। 

       उपरोक्त ग्रंथों में रामशाहको जीवनी और राजा गगनीराजको यात्रा शुद्ध साहित्यिक रचनाएँ हैं। प्रथम से नेपाली साहित्य में जीवनी साहित्य तथा दूसरे के माध्यम से यात्रा साहित्य की नींव रखी गई है, इसलिए इन दोनों ग्रंथों का ऐतिहासिक महत्व है।

                अपनी विकास यात्रा के द्वितीय चरण में नेपाली भाषा अधिक व्याख्यात्मक बनी और व्याकरण के नियमों के निकट आ गई। भारतीय तथा तिब्बत-बर्मी परिवार की भाषाओं के संपर्क में आने के कारण इसके शब्द-भंडार में वृद्धि होने के साथ-साथ इसके रूप स्तर पर भी भारी बदलाव उपस्थित हुआ। इस काल में नेपाली भाषा का विस्तार काठमांडू क्षेत्र, पूर्वी नेपाल तथा भारत तक हुआ। इस काल में नेपाली भाषा मात्र शिलालेखों तथा ताम्रपत्रों तक ही सीमित न रहकर लिपिबद्ध ग्रंथ -रचना के माध्यम के रूप में प्रयोग की गई।

       भारतीय एवं नेवारी भाषाओं के संपर्क में आने से नेपाली में परसर्गों का प्रचलन शुरु हुआ। अपनी विकास-यात्रा के दूसरे चरण में आकर नेपाली भाषा अधिक व्याख्यात्मक तथा संप्रेषणीय बन गई। ज्यों-ज्यों इसका व्यवहार-क्षेत्र बढ़ता गया, त्यों-त्यों इसके रूप में भी परिवर्तन आने लगा। नवीन शब्द, नवीन वर्ण, परसर्ग आदि के आगमन से इसके शब्द भंडार में अभूतपूर्व वृद्धि होती गई।

आधुनिक चरण (सन् 1901 से 2021 तक)

                सन् 1901 से नेपाली भाषा की विकास यात्रा का आधुनिक चरण का प्रारंभ होता है। भाषा-विकास की दृष्टि से यह चरण अत्यंत महत्वपूर्ण है। इस चरण में नेपाली भाषा का व्यवहार क्षेत्र काफी विस्तृत हो गया। सुगौली संधि के कारण भारत में मिलाए गए प्रांतों में नेपाली भाषा-साहित्य की गतिविधि प्रारंभ हुई। नेपाल के अलावा भारत के उत्तराखंड, सिक्किम, दार्जीलिङ, पूर्वोत्तर क्षेत्र के साथ-साथ विश्व के कई देशों तक नेपाली भाषा का विस्तार देखा जा सकता है। 

प्रशासनिक कार्य एवं नेपाली भाषा शिक्षा

       अपने विकास के आधुनिक चरण तक नेपाल में गोर्खा भाषा प्रशासनिक भाषा के रूप में प्रतिष्ठित हो चुकी थी। इसके प्रमाणस्वरूप पृथ्वीनारायण शाह रचित दिव्योपदेश प्राप्त होता है। समय के क्रम के अनुसार यह भाषा पुस्तक रचना, प्रशासनिक आदेश, विधि, कानून, शिक्षा, सरकारी आदेश, लोकव्यवहार, विचार-विनिमय, व्यवसाय आदि सबका माध्यम बनने में सफल हो गई। 

       नेपाली भाषा के अध्ययन एवं अनुसंधान में भारतीय, विदेशी एवं नेपाल के भाषाविदों का उल्लेखनीय योगदान है। इस क्षेत्र में आधिकारिक तौर पर योगदान देने वालों में अलेक्जैंडर कनिंघम, इबेटसन, सिल्वेन लेवी, जी. टुची, जार्ज ग्रियर्सन, योगी नरहरिनाथ, राहुल सांकृत्यायन, सुनीति कुमार चटर्जी, पारसमणि प्रधान, बाबूराम आचार्य, महानंद सापकोटा, बालकृष्ण पोखरेल आदि का नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय है।

       नेपाल में 19वीं सदी के मध्य तक नेपाली भाषा में शिक्षा प्रारंभ हो चुकी थी। इसके परिणामस्वरूप नेपाली में पाठ्य-पुस्तक, कोश, व्याकरण आदि निर्माण का कार्य शुरु हो गया। सन् 1820 में ही जे.एन. एटन द्वारा ग्रामर अफ दि नेपाली लैंग्वैज नामक व्याकरण पुस्तक अंग्रेजी में लिखा जा चुका था। पृथ्वीबहादुर सिंह, हेमराज पण्डित, सोमनाथ सिग्द्याल, पारसमणि प्रधान, गोपाल पाण्डे, पुष्कर शमशेर, रोहिणीप्रसाद भट्टराई, पुष्कर शमशेर, चक्रपणि चालिसे, सूर्यविक्रम ज्ञावली, बालकृष्ण पोखरेल आदि ने व्याकरण एवं कोश ग्रंथ तैयार करके नेपाली भाषा के रूप को मानकीकृत करने का प्रयास किया। विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं के प्रकाशन ने नेपाली भाषा के विकास एवं परिमार्जन में ऐतिहासिक भूमिका अदा की। समय के साथ-साथ नेपाली भाषा संचार माध्यमों की भाषा बन गई।

बनारस एवं नेपाली साहित्य

       सन् 1846 से 1951 तक नेपाल में राणा राजाओं का निरंकुश शासन रहा। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता छीन जाने के कारण कई रचनाकारों ने बनारस की ओर प्रस्थान किया। इस प्रकार बनारस में नेपाली साहित्य के उत्थान का कार्य आरंभ हुआ।

        मोतीराम भट्ट (1866-1896) के उदय के साथ-साथ नेपाली भाषा ने मुद्रण की दुनिया में प्रवेश किया। उन्होंनें बनारस से गोर्खा भारत जीवन (1887) पत्रिका का प्रकाशन आरम्भ किया। इसे विद्वानों ने नेपाली भाषा में निकलने वाली प्रथम पत्रिका माना है। बनारस में छापेखाने की सुविधा के कारण पुस्तक प्रकाशन एवं प्रचार-प्रसार कार्य व्यापक रूप में होने लगा। बनारस से ही उपन्यास तरंगिनी (सन् 1902), सुन्दरी (सन् 1908), माधवी (सन् 1908), गोर्खाली (1914) जैसी कई पत्रिकाओं का जन्म हुआ। साहित्य में विभिन्न विधाओं का सूत्रपात हुआ। मोतीराम भट्ट ने भानुभक्त आचार्य कृत सातकाण्ड रामायण का प्रकाशन किया। नेपाली रामायण की प्रसिद्धि ने नेपाली भाषा की एकरूपता में बड़ी भूमिका अदा की। आदर्श राघव (महाकाव्य), शाकुन्तल नाटक, आचार्य भानुभक्तको जीवनचरित्र (आलोचना), महेन्द्रप्रभा (उपन्यास), अटल बहादुर (मौलिक नाटक), सूक्तिसिन्धू (शृंगारिक काव्य संग्रह) नेपाली साहित्य को बनारस की देन है। कृष्णप्रसाद रेग्मी, हरिहर आ.दी. शिखरनाथ सुवेदी, चक्रपाणि चालिसे, नरेन्द्रनाथ रिमाल आदि विद्वानों ने रचनात्मक साहित्य, प्रकाशन व्यवस्था, व्याकरण, कोश निर्माण, विभिन्न भाषिक आंदोलन आदि के ज़रिए नेपाली भाषा-साहित्य के विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। 

पूर्वोत्तर भारत में नेपाली भाषा-साहित्य

       पूर्वोत्तर भारत में नेपाली भाषा अध्ययन की शुरुआत सन् 1875-76 में ही हो चुकी थी। 1876 में अविभक्त असम, शिलाङ स्थापित गोर्खा पाठशाला इसका प्रमाण है। मणिपुर की भूमि से तुलाचन आले द्वारा सन् 1893 में रचित मनिपुरको लडाईँको सवाई इस क्षेत्र की पहली साहित्यिक रचना है। यह एक सवाई काव्य है। इसके साथ-साथ कई रचनाकारों ने सवाई छंद में अपनी अभिव्यक्ति दी है। भाषा और साहित्य दोनों दृष्टियों से इन सवाई काव्यों का विशेष महत्व है। सन् 1936 से मणिसिंह गुरूङ के संपादन में शिलाङ से निकलने वाली गोर्खा सेवक पत्रिका ने पूर्वोत्तर प्रांत में नेपाली भाषा-साहित्य के विकास में महत्वपूर्ण योगदान दिया है।

दार्जीलिङ में नेपाली भाषा-साहित्य

       बनारस के बाद भारत में नेपाली भाषा-साहित्य के विकास में दार्जीलिङ की अहम भूमिका रही है। सन् 1901 में गंगाप्रसाद प्रधान के संपादन में निकलने वाली गोर्खे खबर कागत ने इस क्षेत्र में पत्रकारिता की नींव रखी। पारसमणि प्रधान के संपादन में निकलने वाली चन्द्रिका (1918) पत्रिका ने नेपाली भाषा-साहित्य के संवर्द्धन में प्रमुख भूमिका निभाई है। इसी काल में नेपाली व्याकरण, नेपाली पाठ्य-पुस्तक तथा शब्दकोश निर्माण का कार्य बड़े पैमाने पर किया गया। सन् 1918 में कलकत्ता विश्वविद्यालय ने इसे माध्यमिक स्तर, आइ.ए तथा बी.ए स्तर में मान्यता देते समय इसे नेपाली भाषा के नाम से दिया। यहाँ से गोर्खा भाषा के स्थान पर नेपाली शब्द को व्यापकता मिली। दार्जीलिङ के स्कूल तथा कॉलेजों में नेपाली भाषा शिक्षा के आरंभ ने नेपाली भाषा में कोशग्रंथ, व्याकरण एवं पाठ्य-पुस्तकों के निर्माण कार्य में तेजी आई। सन् 1924 में नेपाली साहित्य सम्मेलन नामक संस्था की स्थापना से नेपाली भाषा-साहित्य के विकास को और गति मिली।

       सिक्किम में टासी नामग्याल (1914-1963) के शासनकाल में प्रशासनिक कामकाज नेपाली में होने का प्रमाण तत्कालीन दस्तावेजों में प्राप्त होता है। समय के साथ-साथ निकलने वाली पत्र-पत्रिकाएँ, तथा अपतन साहित्य परिषद, सिक्किम साहित्य परिषद जैसी संघ-संस्थाओं ने इस राज्य में नेपाली भाषा-साहित्य के विकास में उल्लेखनीय भूमिका निभाई है।

भारत में नेपाली भाषा-मान्यता

       सन् 1876 में शिलाङ तथा 1918 से दार्जीलिङ में नेपाली शिक्षा का प्रारंभ हो चुकी थी। इस कार्य से नेपाली भाषा में निरंतर सुधार आता गया। वर्तमान भारत में नेपाली भाषी बहुल राज्यों के स्कूल, कॉलेज एवं विश्वविद्यालयों में नेपाली भाषा-साहित्य का अध्ययन एवं शोधकार्य किया जाता है। सन् 1992 में भारतीय संविधान की आठवीं अनुसूचि में इसे भारत की एक प्रमुख भाषा के रूप में मान्यता दी गई। नेपाली भाषा में रचित रचनाओं को प्रतिवर्ष साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित किया जाता है। सर्वोच्च पुरस्कार संस्थानों में नेपाली भाषा को मान्यता प्राप्त है। आज असंख्य साहित्यकार तथा भाषाप्रेमी नेपाली भाषा-साहित्य के संवर्धन में अपना अमूल्य योगदान दे रहे हैं। भारत सरकार की नवीन शिक्षा नीति लागू होने पर इसका महत्व एवं मूल्य और बढ़ेगा इसमें कोई संदेह नहीं है।

 

आधुनिक सञ्चार प्रविधि एवं नेपाली भाषा

       आधुनिक सञ्चार प्रविधियों ने नेपाली भाषा को खूब प्रभावित किया है। आज यह अन्य भाषाओं की तरह कम्प्युटर तथा इंटरनेट में प्रयोग की जाने वाली भाषाओं में से एक है। हिंदी की तरह फन्ट की भिन्नता इसका नकारात्मक पक्ष है, लेकिन यूनिकोड इसकी क्षतिपूर्ति कर रहा है। आज नेपाली भाषा विश्वस्तरीय संचार माध्यमों में प्रयोग में लाई जा रही है। आज ढेरों इ-कंटेन्ट गूगल में खोजा जा सकता है। समाचारपत्र, रेडियो, दूरदर्शन, सिनेमा, विज्ञापन, सोशल मिडिया, फिल्म, पत्र-पत्रिकाएँ, विभिन्न नेपाली चैनल, विज्ञापन आदि नेपाली भाषा-साहित्य का प्रचार-प्रसार विश्वस्तर में कर रहे हैं। नेपाली भाषा को वैश्विक प्लेटफॉर्म देने में इंरनेट ने अहम भूमिका निभाई है। आज यह विश्व की अन्य भाषाओं की तरह गूगल मे प्रयोग की जाने वाली एक प्रमुख भाषा के रूप में पहचानी जाती है।

       आधुनिककालीन नेपाली भाषा के स्वरूप को गढ़ने में भारत की विशेष भूमिका रही है। गोर्खा भाषा या गोर्खाली को नेपाली नाम संज्ञा भी भारत से प्राप्त हुई। इस काल में नेपाली भाषा व्याकरण के नियमों में बँध गई। भारतीय तथा विदेशी भाषाओें के संपर्क में आने के कारण इसके शब्द-भंडार में अभूतपूर्व वृद्धि हुई। टंकण एवं मुद्रण की सुविधा के अनुसार वर्णों एवं शब्दों का मानकीकरण हुआ। नेपाली भाषा में विश्वस्तरीय साहित्य की रचना होने लगी और यह आधुनिक वैज्ञानिक प्रविधियों में प्रयोग की जाने वाली भाषाओं में अपना स्थान कायम करने में सफल हुई है।

 

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नेपाली भाषा की विधाएँ, प्रमुख रचनाएँ और रचनाकार

       सन् 1951 तक नेपाली भाषा-साहित्य के आकार को गढ़ने एवं विकास करने में भारत भूमि का विशेष योगदान रहा है। नेपाल में निरंकुश राणा राजतंत्र के अंत के बाद ही साहित्य का खुलकर विकास हुआ है। नेपाली भाषी रचनाकारों ने कविता, कहानी, उपन्यास, निबंध, नाटक, एकांकी, आलोचना, संस्मरण, यात्रा साहित्य, डायरी आदि के माध्यम से अपनी अभिव्यक्ति दी है। साहित्य की अन्य विधाओं की तुलना में नेपाली साहित्य में कविता विधा ने अत्यधिक विकास किया है। इसके अलावा कहानी, उपन्यास, निबंध तथा नाटक का नम्बर आता है। अन्य विधाएँ अपेक्षाकृत न्यून है।

कविता

       नेपाली साहित्य में काव्य विधा की शुरुआत वीर भाव से शुरु होता है। सन् 1773 -1814 तक की नेपाली काव्य रचनाओं में वीरता का भाव प्राप्त होता है। वीर रस की कविताओं को गढ़ने का काम भारत तथा नेपाल दोनों देशों के रचनाकारों ने किया है। सुवानंददास रचित पृथ्वीनारायण, रघुनाथ भाट रचित आशिश, मौलाराम तोमर के रणबहादुर चन्द्रिकागीर्वाण युद्ध प्रकाश, गुमानी पंत की धन्य गोर्खाली राजा वीरकालीन पद्य रचनाएँ हैं।

       नेपाली साहित्य में भक्ति की रचनाएँ भी लिखी गईं हैं जिनमें सगुण तथा निर्गुण भक्ति दोनों प्राप्त होते हैं। सगुण में कृष्णकाव्य और राम काव्य तथा निर्गुण भक्ति में जोसमनि संत काव्य आते हैं। रघुनाथ से शुरु हुई नेपाली रामभक्ति साहित्य परंपरा में भानुभक्त आचार्य का नाम सर्वोपरि है, उन्होंने सातकांड रामायण (1853) लिखकर संपूर्ण नेपाली भाषी जनता को राम के आदर्श से अभिसिंचित किया है।

       कृष्ण काव्य में वसंत शर्मा रचित श्रीकृष्णचरित्र (सन् 1826), इन्दिरस कृत गोपिका स्तुति, विद्यारण्य केशरी अर्याल कृत युगलगीत, वंशी चरित्र, हीनव्याकरणी विद्यापति के गीतवाणी, गीत गोविंद आदि प्रमुख हैं।

       नेपाली साहित्य में शशिधरदास, अगमदिलदास, अक्खड़दिलदास, ज्ञानदिलदास जैसे कई संतों ने निर्गुण भक्ति साहित्य की रचना की है। संत ज्ञानदिलदास इनमें अग्रणी हैं। उन्होंने नेपाल तथा भारत में संत मत का प्रचार किया है। उदयलहरी (1877) और भजन संग्रह प्रमुख नेपाली संत काव्य संग्रह हैं। इनमें तीर्थाटन तथा धार्मिक आडंबर का विरोध, नैतिक ज्ञान, आत्म चेतना, सहज साधना आदि पर बल दिया गया है।

       नेपाली कविता साहित्य अगले पड़ाव में बनारस का महान योगदान रहा है। जहाँ से नेपाली साहित्य में विविध विधाओं का जन्म हुआ। मोतीराम भट्ट रचित उषा चरित्र (1900), पिकदूत (खंडकाव्य, 1902), कृष्णप्रसाद रेग्मी कृत बाह्रमासे (1903), विरह लहरी (1904), चक्रपाणी चालिसे का मेघदूतछाया आदि इस काल की प्रतिनिधि शृंगारिक काव्य रचनाएँ हैं।

       नेपाली साहित्य में एक ही कालखंड में एक ओर शृंगारिक परिपाटी की रचनाएँ फलफूल रही थीं तो वहीं दूसरी ओर लोक लय में सवाई लहरी काव्य की रचना भी की जा रही थी। तुलाचन आले द्वारा रचित मणिपुरको लडाईको सवाई (1893), धनवीर भंडारी कृत अब्बर पहाडको सवाई (1894), दिलुसिंह राई रचित पैह्रोको सवाई (1903) कुछ प्रतिनिधि सवाई रचनाएँ हैं।

       सन् 1918 से नेपाली साहित्य में दार्जिलिङ निवासी पारसमणि प्रधान के संपादन में निकलने वाली चंद्रिका नामक पत्रिका ने नेपाली साहित्य में नवजागरण का उद्घोष किया। नवीन शिक्षा, स्वाधीनता आंदोलन, अंग्रेजी शासन का विरोध, जाति एवं राष्ट्रप्रेम की भावना, अतीत गैरवगान आदि भावको कविता के माध्यम से व्यापक अभिव्यक्ति मिली। धरणीधर शर्मा कृत नैवेद्य (1920), महानंद सापकोटा कृत मनलहरी (1923), पुष्पलाल उपाध्याय का पुष्पांजलि, पद्मप्रकाश ढुंगाना का कर्तव्य शिक्षा (1937) आदि इस काल की प्रमुख काव्य रचनाएँ हैं।

       हिंदी की छायावादी रचनाओं की तरह नेपाली में भी स्वच्छन्द शैली को कवियों ने अपनी अभिव्यक्ति का माध्यम बनाया। नेपाल के लक्ष्मीप्रसाद देवकोटा इस भावधारा के अग्रणी रचनाकार हैं। मुनामदन, लूनी, कुंजिनी, सुलोचना (खंडकाव्य) आदि उनकी इस धारा की प्रमुख रचनाएँ हैं। इस भाव की कविता सृजन करने वाले भारतीय रचनाकारों में नरेद्र कुमाईं कृत पीड़ा (काव्य सं, 1944), प्रथम यौवन (काव्य सं, 1947), निर्झर (काव्य सं), अगमसिंह गिरी का याद (खंडकाव्य, 1955), आँसु (खंडकाव्य, 1968), युद्ध र योद्धा (खंडकाव्य), ओकिउयामा ग्वाइन कृत चित्रलेखा (1957) तुलसी अपतन का बापू वंदना (खंडकाव्य, 1954) प्रमुख हैं।

       सन् साठ के बाद नेपाली साहित्य में एक नवीन मोड़ आया जिसने लेखन की परिपाटी को काफी प्रभावित किया। दार्जीलिङ से ईश्वरबल्लभ द्वारा संपादित पत्रिका फूल पात पत्कर (1961) तथा वैरागी काईंला संपादित तेस्रो आयाम (1963) ने नेपाली साहित्य में आयामिक आन्दोलन का घोषणा की। ईश्वरबल्लभ, वैरागी काईंला, इन्द्रबहादुर राई, नेपाल से भूपी शेरचन, पारिजात आदि ने इस लेखन को आगे बढ़ाया। इसने लेखन के लिए तीन आयाम का आग्रह किया। नवीनता का आग्रह, यथार्थ चित्रण, वैचारिक गहनता, कमजोर वर्ग का पक्षधर, दार्शनिकता का समावेश, गहन बौद्धिकता, क्रमभंगता आदि इस लेखन की विशेषता है। वैरागी काईँला रचित वैरागी काईंलाका कविताहरू (1974), ईश्वरबल्लभ रचित आगोका फूलहरू हुन आगोका फूलहरू होइनन् (1972) एउटा शहरको किनारमा (1977), हरिभक्त कटुवाल का भित्री मान्छे बोल्न खोज्छ (1961), यो जिन्दगी खै के जिन्दगी (1971), चन्द्रेश्वर दुबे कृत भानुभक्त र घाँसी (1962) आदि इस काल की प्रमुख काव्य रचनाएँ हैं।

       सन् 1970 के बाद नेपाली साहित्य में विभिन्न वादों, सिद्धांतों, विश्व प्रचलित मान्यताओं, बढ़ते बाजारवाद से उत्पन्न विषम स्थितियों, वैज्ञानिकता आदि का प्रभाव पड़ा। जातीय अस्मिता, नेपाली भाषा आंदोलन, भाषा को संवैधानिक मान्यता, गोर्खालैंड आंदोलन, समान नागरिकता का प्रयास यांत्रिकता का प्रभाव आदि नेपाली साहित्य में देखा जा सकता है। इस काल में भारत और नेपाल नेपाली भाषा-साहित्य के केंद्र में हैं। गोपीनारायण पधान का साइलाक आइरहेछ (1978), युद्धवीर राणा का चिहान न पाएका तक्माहरू (1982), जीवन थिङ कृत साङ्लीभित्र बाँधिएका घोड़ाका टापहरू (1983), छविलाल उपाध्याय का पवनदूत (1990), नवसापकोटा कृत काव्यांतर (1996), तुलसी कश्यप कृत आमा (महाकाव्य, 1988), मनप्रसाद सुब्बा का आदिम बस्ती (1995), तुलसीबहादुर छेत्री कृत कर्ण कुन्ती (महाकाव्य), मैना थापा आशा कृत कस्तूरी (2000), घनश्याम कोइराला रचित सृष्टिका दुईधार (2012) आदि भारत में रचित प्रतिनिधि काव्य रचनाएँ हैं। नेपाल के कवि एवं रचनाओं में जगदीश शमशेर राणका का नरसिंह अवतार (1980), प्रेम लामा कृत तुहेर जन्मन्छन् मान्छेहरू (1983), विक्रम सुब्बा का कविको आँखा कविताको भाखा (1982), सुम्निमा पारुहाङ (1988), सरला बिष्ट का आकाशबेली (1988), सीता पांडे कृत असजिला खुशीहरू (1991) आदि प्रमुख काव्य-रचनाएँ हैं।

  

नेपाली कथा साहित्य - नेपाली साहित्य में आधुनिक कथा साहित्य के विकास में विभिन्न युगीन पत्रिकाओं ने उल्लेखनीय भूमिका निभाई है। गोर्खा संसार (बनारस, 1926) गोर्खा सेवक (शिलाङ,1936), उदय (बनारस,1936), तरुण गोर्खा, शारदा आदि पत्रिकाओं में प्रकाशित कहानियों ने नेपाली कथा साहित्य का बीजारोपण ही नहीं किया बल्कि इसे उँचाई भी प्रदान की। गोर्खा संसार में प्रकाशित सूर्यविक्रम ज्ञवाली रचित वियोग (1927), देवीको बली (1928), रूपनारायण सिंह रचित अन्नपूर्णा (1926), शारदा (नेपाल) में प्रकाशित गुरुप्रसाद मैनाली कृत नासो (1935), विश्वेश्वरप्रसाद कोइराला कृत चन्द्रबदन (1935), गोर्खा सेवक में प्रकाशित रामप्रसाद ज्ञवाली रचित कलंक (1937), आदि प्रारम्भिककालीन आधुनिक नेपाली कहानियाँ हैं। इनमें से अन्नपूर्णा को प्रथम आधुनिक भावबोध युक्त कहानी माना गया है। कथाकुसुम (साहित्य सम्मेलन दार्जीलिङ, 1938), पूर्णदास श्रेष्ठ रचित धानको बाला (1942), लैनसिंह बांग्देल कृत विश्वकथा संग्रह (1945) प्रारम्भिककालीन कथा संग्रह हैं।

       नेपाली कहानी साहित्य के विकास में असंख्य रचनाकारों में उल्लेखनीय योगदान दिया है। रूपनारायण सिंह रचित विध्वस्त जीवन, धनमतीको सिने स्वप्न, बितेका कुरा आदि ने नेपाली कहानी साहित्य के कलेवर को गढ़ने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। शिवकुमार राई कृत फ्रंटियर (1951), यात्री (1956), खहरे (1977), इंद्र सुंदास कृत रोमंथन (1989), एम.एम. गुरुङ कृत घर संसार (1956), इन्द्रबहादुर राई कृत विपना कतिपय (1962), कथास्था (1972), कठपुतलीको मन (1989), असीत राई कृत आत्मयंत्रणा (1974), सानु लामा का मृगतृष्णा (1990), हिमालचुली मन्तिर (1998), गुप्तप्रधान का अक्षरै अक्षरको शहर (1993), पीतांबर गुरूङ का म कुंतला हूँ (2001), रूद्र पौड्याल कृत हराएको मान्छे (2007), खड्गराज गिरी का शून्य-विकल्प (2006), आशारानी राई कृत यम द्वितीया (1999), डॉ. शांति थापा संपादित असमेली नेपाली कथा-यात्रा (2008), विक्रमवीर थापा कृत बीसौं शताब्दी की मोनालिसा, राजेन्द्र ढकाल कृत आरोह (2014) लोकनाथ उपाध्याय चापागाईं कृत किन रोयौ उपमा आदि भारत भूमि में प्रकाशित प्रतिनिधि कहानी संग्रह हैं।

       समय के साथ-साथ नेपाली कहानियों में विभिन्न वादों और विचारधाराओं का प्रभाव पड़ा है। यथार्थवाद, अस्तित्ववाद, प्रयोगवाद, मनोवैज्ञानिकता, समकालीन भावबोध, उत्तर आधुनिक वैचारिक चिन्तन आदि का स्पष्ट प्रभाव देखा जा सकता है। नेपाल के विश्वेश्वरप्रसाद कोइराला कृत दोषी चस्मा (1949), भवानी भिक्षु का गुनकेशरी (1953), अवांतर (1977), गोविंदबहादुर मल्ल गोठाले कृत प्रेम र मृत्यु, अपर्णा (1996), विजय मल्ल का एक बाटो अनेक मोड (1946), परेवा र कैदी (1956) आदि रचनाओं में सुंदर मनोवैज्ञानिक चिंतन के दर्शन होते हैं।

       रमेश विकल कृत विरानो देश (1959), आज फेरि अर्को तन्ना फेरिन्छ (1967), उर्मिला भाउजु (1886) आदि में प्रगतिशील विचारधारा के दर्शन होते हैं तो वहीं इंद्रबहादुर राई की रचनाओं में प्रयोदवादी चिंतन को अभिव्यक्ति मिली है। शंकर लामिछाने, मोहनराज शर्मा, पारिजात, ध्रुवचंद्र गौतम, गोपाल पराजुली, प्रेमा शाह, भागिरथी श्रेष्ठ, हरिप्रसाद गोर्खा राई, समीरण छेत्री प्रियदर्शी, लीलबहादुर क्षत्री आदि रचनाकारों में प्रगतिशीलता के दर्शन होते हैं। वहीं कविताराम, गणेश रसिक, मंजु काँचुली, ऋषिराज बराल, महानंद पौड्याल, रामलाल अधिकारी, एम.पी राई, सनत रेग्मी, सीता पांडे, भागीरथी श्रेष्ठ, कपिल लामिछाने, देवी थापा मामा, माया ठकुरी, डम्बर दाहाल, कमला आँसु, कालूसिंह रनपहेंली, मुन्नी सापकोटा आदि नेपाली कहानी साहित्य को उँचाई प्रदान करने वाले रचनाकार हैं।

नेपाली उपन्यास - नेपाली भाषा में उपन्यास साहित्य के विकास में बनारस ने अहं भूमिका निभाई है। हिंदी साहित्य की तरह नेपाली में भी प्रारंभिक उपन्यास की शुरुवात तिलस्मी ऐय्यारी प्रवृत्ति से हुई है। इस दिशा में शिवदत्त शर्मा लिखित वीरसिक्का (1889) का महत्वपूर्ण योगदान है। इसमें आधुनिककालीन उपन्यास की ढाँचा प्राप्त होती है। इसके पश्चात प्रेमसागरबेतालपच्चीसीबहत्तर सुधाको कथानलोपाख्यानविदुला-पुत्र संवाद जैसी रचनाओं ने उपन्यास के ढाँचे को गढ़ने में महत भूमिका निभाई है। ये रचनाएँ मूल संस्कृत से अनूदित हैं। इसके पश्चात रामप्रसाद शर्मा कृत  गायक चरित्र महासत अनसूया, माधवप्रसाद शर्मा का  उषाचरित्र, नित्यानन्द सिग्द्याल कृत नलदमयन्ती, विष्णुचरण श्रेष्ठ कृत भीष्म प्रतिज्ञा, ऋद्धिबहादुर मल्ल रचित शर्मिष्ठा जैसी रचनाओं ने नेपाली उपन्यास की रूपरेखा को गठन करने में उल्लेखनीय भूमिका निभाई है। नेपाली उपन्यास लेखन के इस प्रयास ने बनारस से प्रकाशित पत्रिका उपन्यास तरंगिनी में प्रकाशित सदाशिव शर्मा रचित महेन्द्रप्रभा (1902) में आकर पूर्ण प्रतिष्ठा प्राप्त की। इसे नेपाली साहित्य का प्रथम उपन्यास माना जाता है। सदाशिव शर्मा रचित सुंदरी भूषण, रामप्रसाद सत्याल का कलावती, मधुबाला, पद्मनाभ सापकोटा का डॉ.सूर्यप्रसाद, पारसमणि प्रधान का राधारानी (1918), बनारस से प्रकाशित अन्य औपन्यासिक रचनाएँ हैं। नेपाल से प्रकाशित वीरमालोजी भोंसले (1904) तथा यमप्रपञ्चक (1906) इस काल के अन्य प्रमुख उपन्यास हैं।

       दूसरे चरण के उपन्यासों में खरसाङ से प्रकाशित प्रतिमानसिंह लामा रचित महाकाल जासूस (1918) ने तिलस्मी ऐय्यारी प्रवृत्ति आगे बढ़ाया। इस चरण से प्रकाशित उपन्यासों में रुद्रराज पाण्डे कृत रूपमति (1934) तथा विष्णुचरण श्रेष्ठ कृत सुमति (1934) का विशेष स्थान प्राप्त है। कथावस्तु, पात्र, परिवेश आदि तत्व के आधार पर रूपमति को प्रथम आधुनिक नेपाली उपन्यास होने का गौरव प्राप्त है।

       सन् 1936 में प्रकाशित रूपनारायणसिंह रचित उपन्यास भ्रमर (1936) से नेपाली उपन्यास साहित्य में स्वच्छंतावादी भावबोध का जन्म हुआ। इस धारा के अन्य उपन्यासों में अच्छा राई रसिक कृत को लगन (1950) तथा  दोभान (1964), शिवकुमार राईको  डाक बङ्गला  (1956), कृष्णसिंह मोक्तान कृत चरणधूली (1957), प्रेम भांतिसत्य कथा (1959), लीलाध्वज थापाका मन  (1958)शान्ति (1958)  मोहनबहादुर मल्ल का उजेली छायाँ (1951)लक्ष्मीप्रसाद देवकोटा कृत  चम्पा  (1967) इस दिशा की अन्य प्रमुख रचनाएँ हैं।

       नेपाली उपन्यासकारों ने सामाजिक यथार्थवाद को भी बढ़-चढ़कर अभिव्यक्ति दी है। इस परंपरा का सूत्रपात लैनसिंह वांग्देल के उपन्यासों से हुआ है। उनके द्वारा रचित मुलुकबाहिर (1948), माइत घर (1949)लङ्गडाको साथी (1951)रेम्ब्रान्ट (1958) युगांतकारी रचनाएँ हैं। असम के लीलबहादुर क्षत्री कृत बसाइँ (1957), अतृप्त (1965) तथा ब्रह्मपुत्रको छेउछाउ (1986), गोविन्दबहादुर मल्ल 'गोठाले' कृत पल्लो घरको झ्याल (1959), लीलाध्वज थापा का मन (1968)दौलतविक्रम विष्ट का मञ्जरी (1959)शंकर कोइराला कृत खैरेनी घाट (1961), तुलसीराम कुँवर का  रने (1961) भवानी भिक्षु  कृत  आगत  (1966), धनुषचंद्र गोतामे कृत घामका पाइलाहरू (1978), केशवराज पिंडाली का  बाँच्ने एउटा जिन्दगी (1986), राजेश्वर देवकोटा का आवर्तन (1984)गोविंदराज भट्टराई का मुगलान (1974) अर्जुन निरौला का  घाम डुबेपछि (1976), रोहित गौतम का अग्निस्नान (2002) इस दिशा की प्रमुख रचनाएँ हैं।

       नेपाली उपन्यास साहित्य में मनोवैज्ञानिक विचारधारा का प्रयोग भी भरपूर हुआ है। विजय मल्ल रचित अनुराधा (2018), विश्वेश्वरप्रसाद कोइराला के तीन घुम्ती (1968), सुम्निमा, पारिजात कृत शिरीषको फूल (2022), दौलतविक्रम विष्ट कृत एक पालुआ अनेक याम चपाइएका अनुहार (2030), विन्द्या सुब्बा का अथाह (1997), लोकनाथ उपाध्याय का आँधी (1999), इस दिशा की उल्लेखनीय औपन्यासिक रचनाएँ हैं।

       इन्द्रबहादुर राई कृत आज रमिता छ (1964), पारिजात का महत्ताहीन (1968) ध्रुवचंद्र गौतम का अन्त्यपछि (1964), बालुआमाथि (1971), दौलतविक्रम विष्ट का चपाइएका अनुहारहरू (1973) विसंगतिवाद पर आधारित उपन्यास हैं। पारिजात कृत अंतर्मुखि (1977), मत्येन्द्र प्रधान कृत नीलकंठ (1984), सरुभक्त का पागलबस्ती (1991), असीत राई कृत नया क्षितिजको खोज जैसे उपन्यासों में अस्तित्ववाद के दर्शन होते हैं तो वहीं पारिजात कृत बैंसको मान्छे, पर्खालभित्र र बाहिर, रमेश विकल कृत अविरल बग्दछ इंद्रावती, भीमदाहाल का द्रोह, राधा रसाइली कृत बदलिँदो समाज, इन्द्र सुन्दास का मंगली, जुनेली रेखा, गंगा कप्तान का महत्वहीन कुमारीत्व, शरद छेत्री का मृगतृष्णा आदि अन्य उल्लेख्य नेपाली उपन्यास रचनाएँ हैं।   

नेपाली नाटक साहित्य - नेपाली नाटक एवं रंगमंच की शुरुआत रामायण बालुन तथा कृष्णचरित्र बालुन जैसे लोक नाटकों से हुआ है। दूसरे चरण में फारसी रंगमंच ने भी नेपाली नाटक साहित्य के सूत्रपात का धरातल तैयार किया है। आधुनिक नाटकों का सूत्रपात सन् 1900 के आस-पास हुआ है। मोतीराम भट्ट अनूदित शाकुन्तल नाटक नेपाल दरबार में मंचित पहला नाटक था। पहलमान सिंह स्वाँर रचित अटलबहादुर (1905) दार्जिलिङ के रंगमंच में मंचित प्रथम नेपाली नाटक है जो सन् 1908 में प्रदर्शित हुआ था। गोर्खा नेशनल थिएट्रिकल पार्टी (1910), हिमालय एम्युजमेन्ट एसोसिएसन (1913), हिमालयन एण्ड चिल्ड्रेन्स एम्युजमेन्ट एसोसिएसन (1916) गोर्खा दुख निवारक सम्मेलन, भाई संगीत सम्मेलन, हिमालय कला मंदिर, नाट्य कला निकेतन जैसी संस्थाओं ने प्रारंभिक नेपाली नाटक के विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। पारसमणि प्रधान रचित सुंदर कुमार (1919), विद्यासुंदर (1920), चंद्रगुप्त (1922), सूर्यविक्रम ज्ञवाली रचित श्यामा कमारी श्यामा कमारी (1918), द्रव्य शाह (1933), रामशाह (1933), महानंद सापकोटा का रातकाना (1922) तथा कंठहार, भैयासिंह गजमेर कृत नलदमयंती (1924), परशुराम (1925), स्वामीभक्ति (1925), हर्षबहादुर शाही के अलाद्दीन (1931), गरीबको आँसु, उषा (1943), धनवीर मुखिया रचित राजा हरीश्चन्द्र (1916), रूक्मिनीहरण (1925) आदि प्रारंभिककालीन नेपाली नाटक हैं। इनमें आदर्शवाद, सामाजिकता, राष्ट्रीयता, रुढ़ि विरोध आदि विचारों के दर्शन होते हैं।

       नेपाल के रचनाकार बालकृष्ण सम रचित मुटुको व्यथा (1921) का नेपाली नाटक साहित्य में विशेष स्थान है। इस रचना से नेपाली नाटक में सामाजिक आदर्शोन्मुख यथार्थ का प्रवेश दिखाई देता है। इस प्रवृत्ति के साथ- साथ देशप्रेम एवं मानवतावादी चिन्तन को भी नाटककारों ने अभिव्यक्ति दी है। बालकृष्ण सम के मुकुन्द इन्दिरा (1937)प्रह्लाद (1938), भीमनिधी तिवारी का सहनशीला सुशीला (1938) किसान (1946) इस प्रवृत्ति की अन्य रचनाएँ हैं।

       सन् 1930 से 1950 तक दार्जीलिङ तथा देश के विभिन्न भागों में नेपाली नाटकों का प्रणयन और मंचन बड़े पैमाने पर होता रहा। इनमें अनूदित के साथ-साथ मौलिक नाटकों का प्रणयन अधिक मात्रा में किया गया। ऐसे नाटकों में भैयासिंह गजमेर का अमर आशा (1939), राजा हरीश्चन्द्र (1942) और मर्डन शकुन्तला (1945), हरिनारायण उपाध्याय कृत सत्य हरिश्चन्द्र, प्रबोध चन्द्रोदय (1934), हीराकुमार सिंह का राक्षसी मन्दिर (1933), लैला मजनू (1938), अनाथ (1947), हर्शध्वज लामा के प्रेम बलिदान (1937), तथा वीणा (1941), डॉ. इन्द्रमान राई रचित जीवनलीला (1930), काला राई तथा जर्मन राई कृत संग्राम (1935), नरसिंह डाकु (1936), बैराम लुटेरा (1936) एवं तीनधारे तरवार (1937), रणसिंह गजमेर का कृष्ण सुदामा (1941), के.बी सिंह का निराला संसार (1944), सूर्यकुमार बस्नेत कृत साँझ सवेरा (1944) और नेपाली युवती (1945)  आदि इस काल के प्रमुख मंचित नाट्य-रचनाएँ हैं।

       गोपालप्रसाद रिमाल कृत मसान नाटक (1947) के प्रकाशन के बाद  नेपाली नाटक में सामाजिक यथार्थवाद का प्रवेश दिखाई देता है। सन् 50 के बाद के नाटकों में जातीय जागरण, युगीन समस्या, राष्ट्रीयता, अस्तित्व चिंतन के साथ- विभिन्न विचारधाराओं के दर्शन होते हैं। इस काल में नाटक पुस्तक रूप में प्रकाशित होने लगे। तुलसीबहादुर क्षेत्री रचित कमल (1953), विजय (1955) तथा जमाना बदलियो, गोविंदबहादुर मल्ल गोठाले का भुसको आगो (1956), विजय मल्लका जिउँदो लाश (1960), प्रेमसिंह सुवेदी का कुमारी आमा (नाटक, 2000), टीकाराम शर्मा रचित आमाको पुकार (1963), लीलबहादुर क्षेत्री लिखित दोबाटो (1960) इस काल की प्रमुख नाट्य रचनाएँ हैं।

       साठ के बाद की नाट्य रचनाओं में प्रयोगवाद, अस्तित्ववाद, मनोवैज्ञानिकता, विसंगतिवाद, उत्तर आधुनिक चेतना आदि के दर्शन होते हैं। मनबहादुर मुखिया कृत अनि देवराली रून्छ (1973), क्रसमा टाँगिको जिंदगी (1977), जस योंजन प्यासी का नयाँ सूर्यको प्रतीक्षा, नंद हाङ्खिम का युद्धहरू (1973), मोहन थापा का आगोका झिल्का (1976), ध्रुवचन्द्र गौतम का त्यो एउटा कुरा (1973), भस्मासुरको नलीहाड (1980), लक्ष्मण श्रीमल के तीन दिशा (1992), श्रीमलका नाटकहरू (2003), अविनाश श्रेष्ठ कृत अश्वत्थामा हतोहत: (1994), इन्द्रबहादुर राई कृत पहेंलो दिन (2002), शरद छेत्री का खूब नाच्यो कठपुतली (1973), अशेष मल्ल  का सडकदेखि सडकसम्म (1980), चुन्नीलाल घिमिरे का पुत्काको मह (1996), मनबहादुर गुरुङ का पहाड़ देखि मधेशसम्म (1991) मोहन थापा का आगोका झिल्का, पी. अर्जुन का हाँस्दै जल्नु पर्छ (1982), मोहनराज शर्मा कृत यातनामा छट्पटाएकाहरू (1982), सरुभक्त के युद्ध : उही ग्यास च्याम्बरभित्र (1983), निमावीय (1998), हरि खनाल का सैरन्ध्री (2018) ध्रुव लोहागुण का मन (2010), किरण ठकुरी का जय महाकाल (1998), सी.के श्रेष्ठ रचित सड़क नाटक ऐनामा हेर्दा रामसाँइली, मुक्ति उपाध्याय कृत बाल नाटक घर (2014) आदि प्रमुख नाटय रचनाएँ हैं।

       नेपाली साहित्य में उपरोक्त विधाओं के अलावा निबंध, आलोचना, यात्रा साहित्य, संस्मरण आदि का भी विशाल भंडार मौजूद है, सबका यहाँ उल्लेख करना संभव नहीं है।

भाषा शास्त्रीय/ व्याकरणिक चिन्तन

अंक व्यवस्था - नेपाली भाषा अंक देवनागरी के १,२,३,४,५ ही मान्य है। पर वर्तमान समय में खास तौर पर भारत में लेखन की सुविधा के लिए रोमन अंकों का प्रयोग भी देखा जाता है। भारतीय संविधान की स्वीकृति के अनुसार भारत में लिखित नेपाली भाषा साहित्य में इन अंकों को अपनाया जाना संविधान सम्मत होगा।

3. वर्ण विचार - नेपाली भाषा में स्वर और व्यंजन वही हैं जो हिंदी में स्वीकृत हैं। जिनमें कुछ वर्णों के प्रयोग में आंशिक भिन्नता पाई जाती है।

क. स्वर - नेपाली भाषा में हिंदी की तरह ही , , , , , , , , , , औ-11 स्वर के अलावा अनुनासिक (अँ), अनुस्वार (अं) तथा विसर्ग (:) ध्वनियाँ हैं, स्वरों के साथ ही लिखे जाते हैं। अंग्रेजी में स्वरों की संख्या केवल पाँच है - a, e, i, o, u

       हिंदी में जहाँ अंग्रेजी के o के उच्चारण के लिए ऑ (डॉक्टर, ऑफिस) का प्रचलन है वहाँ नेपाली में यह आ (डाक्टर, आफिस) हो जाता है। इसके अलावा नेपाली ह्रस्व प्रधान भाषा होने के कारण मूल तत्सम शब्दों को छोड़कर तद्भव, देशज, आगत सबमें ह्रस्व इ एवं उ प्रयोग किया जाता है। ऋ वर्ण केवल एकाध तत्सम शब्दों में प्रयुक्त होता है, मूल नेपाली में नहीं इसलिए कई विद्वान इसे हटाने की बात करते हैं। लेकिन यह सोचना होगा कि यदि तत्सम शब्द नेपाली शब्दभंडार का हिस्सा है तो ऋ का रहना जरूरी है।

ख. व्यंजन - नेपाली भाषा में हिंदी की तरह ही व्यंजन वर्णों का व्यवस्था है। क से म तक 25 स्पर्श व्यंजन, य, र, ल, व, अंतस्थ, श, ष, स, ह उष्म और संयुक्त क्ष, त्र, ज्ञ, श्र संयुक्त वर्ण हैं जिनकी कुल संख्या 37 है। संयुक्ताक्षर को लेकर विद्वानों में मतभेद है। नेपाल में इन वर्णों को हटाए जाने की कवायद चल रही जबकि आज भी नेपाली भाषा में क्षेत्र, क्षत्रीय, त्रास, ज्ञान, श्रवण जैसे शब्द प्रचलित हैं तो इन वर्णों को वर्णमाला से हटाया जाना तर्क संगत नहीं होगा। हिंदी में जहाँ ड ढ के साथ ड़ और ढ़ उक्षिप्त ध्वनियाँ हैं, ये नेपाली में नहीं हैं, जबकि उच्चरण में ये मौजूद है। उदाहरण के तौर पर डाँडा, पहाड लिखा जाता है पर उच्चारण डाँड़ा, पहाड़ ही होता है। हिंदी में का प्रयोग रेफ तथा पदेन (कर्क, प्रश्न, ट्रेन) के रूप में होता है। नेपाली में र रेफ, पदेन तथा परेली र तीन रूपों में प्रयोग होता है। परेली र का आकार अंग्रेजी के हाइफन (-) की तरह होता है जो स्वतंत्र लिखा नहीं जा सकता (ऱ्य, पऱ्यो)। वैसे यह र का अर्ध रूप है पर इसके उच्चारण में रेफ से अधिक बलाघात का प्रयोग होता है और र् के बाद य ध्वनि आने पर इसका प्रयोग किया जाता है। नेपाली में पंचम वर्ण का अनुस्वार में बदलाव मान्य नहीं है। गंगा को गङ्गा लिखना होगा।

ग. शब्द-विचार -उद्गम की दृष्टि से नेपाली में शब्दों के चार भेद हैं- तत्सम, तद्भव, स्थानिक (देशज) और आगंतुक (विदेशी)।

घ. शब्द-निर्माण - नेपाली में शब्द निर्माण की प्रक्रिया अन्य भारतीय भाषाओं के अनुरूप ही होता है। यह मूल धातु में उपसर्ग, प्रत्यय जोड़कर, संधि या समास द्वारा निर्मित किया जाता है।

अ) उपसर्ग - वे शब्दांश, जो किसी शब्द के आरंभ में लगकर उनके अर्थ में विशेषता ला देते हैं या तो उनके अर्थ को बदल देते हैंउपसर्ग कहलाते हैं। नेपाली में मूल नेपाली के साथ-साथ संस्कृत के उपसर्ग प्रयुक्त होते हैं। अ, अन्, उन्, कु, न, बि, स, सु, क, दुर्, नि, निर्, निस्, पर, परि, बे, बै आदि नेपाली मूल उपसर्ग हैं। तत्सम उपसर्गों में अति, अधि, अनु, अप, अभि, अव, आ, उत्, उप, दुर्, दु:, निर्, परा, परि, सम्, सु आदि प्रयुक्त होते हैं। इनके अलावा नेपाली में बहुउपसर्ग युक्त शब्द भी पाए जाते हैं जैसे- अभि+सम्+ताप= अभिसन्ताप, निर्+अनु+नासिक = निरानुनासिक।

आ) प्रत्यय - धातु के अंत में लगकर अर्थ परिवर्तन करने वाले शब्दांश को प्रत्यय कहते हैं। नेपाली में  कृत तथा तद्धित प्रत्ययों की व्यवस्था है। अन (चलन, जलन), अनी (थालनी, सोधनी), ई (ठगी), ओ (घोचो), नु (उठनु), आइ (जोताइ), आ, आवट, ओट, वट, अन, आन, अनी, आनी, आउ, आव, आलो, आइँ, औती, उवा, नी, ती, नो, अंत, अस्त, अक्कड, आ, आउ, न, एर, उऩ्जेल,आहा, इया, ए, इलो, आइलो, उवा, एटो, एसो औटो, औटे, औली, औरा, पन, आनी, आम्मे, उङ्गो आदि मूल नेपाली प्रत्यय हैं। नेपाली में आगत प्रत्यय भी प्रचलित हैं। वाला, वाल, दास, खोर, दार, वार, ची, नामा, दानी, बारी, इन्दा, गार, इयत इसके उदाहरण हैं। तत्सम शब्द व्युत्पन्न कई प्रत्यय नेपाली में प्रयुक्त होते हैं। इक, इका, ईय, इय, ईन, उक, इत, वान, मान, इम, इमा, इल, मय, वत्, ता, त्व आदि ऐसे प्रत्यय के उदाहरण हैं। 

ङ) वाक्य व्यवस्था - नेपाली वाक्य में कर्ता + कर्म + क्रिया की व्यवस्था है। आवश्यकता के अनुसार पर कर्ता, कर्म तथा क्रिया का विस्तार होता है। अर्थ के आधार पर - 1) सामान्यार्थक, 2) प्रश्नार्थक, 3) आश्चर्यादिबोधक, 4) विध्यर्थक, 5) सम्भावनार्थक तथा 6) संकेतार्थक छ: प्रकार के वाक्य हैं वहीं संरचना के आधार पर तीन प्रकार के वाक्य हैं - 1) सरल वाक्य 2) संयुक्त वाक्य औऱ 3) मिश्र वाक्य।

ङ) शब्द-भेद

1) नाम (संज्ञा) - नेपाली में संज्ञा को नाम के नाम से जाना जाता है। व्यक्ति या वस्तु (प्राणी, पदार्थ, स्थान, गुण, धर्म) आदि बोध कराने वाले शब्दों को नाम कहा जाता है। नाम के पाँच प्रकार है- व्यक्तिवाचक, जातिवाचक, समूहवाचक, द्रव्यवाचक तथा भाववाचक।

2) सर्वनाम - नाम के बदले में प्रयुक्त होने वाले शब्दों को सर्वनाम कहते हैं। नेपाली में सर्वनाम के चार प्रकार माने गए हैं -

क. पुरुषवाचक सर्वनाम - पुरुषवाचक सर्वनाम तीन प्रकार के हैं-

   अ. प्रथम पुरुष - बोलने वाला - म (मैं), हामी (हम)

   आ. द्वितीय पुरुष - सुनने वाला - तँ (तुम - छोटों के लिए), तिमी (तुम- बराबर वालों के लिए), तपाईँ (आप)

इ. तृतीय पुरुष - तीसरा व्यक्ति, जिसके बारे में बात की जा रही है। - ऊ, त्यो (वह), यो (यह), यी (ये -पास का), ती (वे-दूर का), उनीहरू (वे -वहुवचन) आदि

. निश्चयवाचक सर्वनाम - (क) समीपवाची - यो, यी, यीनीहरू (सामान्य - यह, ये, ये, सब), यी, यिनी, यहाँ (आदरार्थी - ये)

       (ख) दूरवाची- त्यो, तिनीहरू, ऊ, उनीहरू (सामान्य - वह, वेलोग), ती, तिनी, उनी, उहाँ (आदरार्थी -      वे)

. संबंधवाचक सर्वनाम - जो-त्यो, जस्तो-त्यस्तै, जुन-त्यै, जब-जब-तब-तब आदि।

घ. अनिश्चयवाचक सर्वनामम - कोही कोही-कोही, केही, कुन आदि

 (कोई, कुछ, कौन)

ङ. निजवाचक - आफ्नु, आफूको

3. विशेषण - व्यक्ति, वस्तु, स्थान आदि की विशेषता बताने वाले शब्द विशेषण कहलाते हैं। नेपाली में चार प्रकार के विशेषण माने जाते हैं-

(अ) गुणवाचक - मिठो, होचो, गहिरो, कालो, बुद्धिमान

(आ) संख्यावाचक - इसके अंतर्गत निश्चित तथा अनिश्चित संख्यावाची   विशेषण आते हैं।

       एक, दुई, दश, हजार, अरब, केही

(इ) परिमाणवाचक - निश्चित तथा अनिश्चित परिमाणवाची एक लिटर, दुई किलो, धेर, थोर

(ई) सार्वनामिक - यो, त्यो, कुन, जुन

अ. गुणवाचक विशेषण - गुणवाचक विशेषण विशेष्य का गुण, आकार, स्थान, काल, अवस्था, रंग, पदार्थ आदि का बोध कराता है।

आ. संख्यावाचक विशेषण - इसके अंतर्गत निश्चित तथा अनिश्चित संख्यावाची विशेषण आते हैं।

इ. परिणामवाचक विशेषण - इसके अंतर्गत भी हिंदी की तरह निश्चित तथा अनिश्चित परिमाणवाची विशेषण शब्द हैं।

विशेषण की तीन अवस्थाएँ हैं - मूलावस्था, उत्तरावस्था और उत्तमावस्था। जैसे- उच्च-उच्चतर-उच्चतम्, निम्न-निम्नतर-निम्नतम् - ये तत्सम शब्दों के लिए प्रयुक्त होते हैं। मूल नेपाली में तुलना के लिए  - भन्दा शब्द के प्रयोग किया जाता है। यथा- राम्रो - उ भन्दा राम्रो - सबै भन्दा राम्रो।

मानव स्तर पर विशेषण लिंग से प्रभावित होता है। जैसे मोटो केटो, मोटी केटी, मोटा केटाहरू। (मोटा लड़का, मोटी लड़की, मोटे लड़के)

4. क्रिया - जिस शब्द से वाक्य में कुछ कार्य करने या संपादित होने का बोध हो उसे क्रिया कहते हैं। जैसे -उ आयो। (वह आया), मोहनले भात खायो। (मोहन ने खाना खाया।)

नेपाली में क्रिया के प्रकार -

   अ. समापकता के आधार पर -1) समापिका क्रिया 2) असमापिका क्रिया

   आ. अर्थ प्राधान्य के आधार पर -1) मुख्य क्रिया 2) सहायक क्रिया

   इ. संरचना के आधार पर- 1) सरल क्रिया 2) जटिल क्रिया

   ई. कर्मकता के आधार पर - 1) अकर्मक क्रिया 2) सकर्मक क्रिया 3) द्विकर्मक क्रिया

   उ. पूर्णता के आधार पर - 1) पूर्ण क्रिया 2) अपूर्ण क्रिया

नामधातु क्रिया, प्रेरणार्थक क्रिया, संयुक्त क्रिया तथा अनुकरणात्मक क्रिया।

इसके साथ-साथ नेपाली में वाच्य भी हिंदी की तरह कर्तृ वाच्य, कर्म वाच्य तथा भाववाच्य तीन होते हैं।

5. लिंग - शब्द के जिसरूप से यह पता चले कि वह पुरुष जाति का है अथवा स्त्री, उसे लिंग कहते हैं।

 नेपाली में भी हिंदी और अंग्रेजी की तरह दो प्रकार के लिंग की व्यवस्था है - पुल्लिंग और स्त्रीलिंग

 जहाँ हिंदी में निर्जीव वस्तुओं के लिंग निर्धारण की व्यवस्था है, वह नेपाली में नहीं है।

       मानव स्तर पर पुल्लिंग से स्त्रीलिंग बनाने की कई विधियाँ हैं। वाक्य में कर्ता एवं कर्म के लिंग, वचन आधार पर क्रिया के रूपों में परिवर्तन होता है। जैसे - केटो - केटी (लड़का-लड़की)

   सामान्य वर्तमान काल - पु. लि. एक वचन -  केटो आउँदछ। (लड़का आता है।)

                                   बहुवचन - केटाहरू आउँदछन्।

                          स्त्री. लि. एक वचन - केटी आउँदछे। (लड़की आती है।)

                                  बहुवचन - केटीहरू आँउदछन्। (लड़कियाँ आउँदछन्।)

एक वचन स्तर पर पुल्लिंग और स्त्रीलिंग की क्रिया बदलती है, पर बहुवचन स्तर पर दोनों की क्रियाएँ समान होती है।

   सामान्य भूतकाल -     पु. लि. - केटो आयो। (लड़का आया।) -

                       स्त्री. लि. - केटी आई। (लड़की आई।)

आदरार्थी शब्दों में दोनों लिंग की क्रिया समान रूप में होगी। जैसे -

सामान्य वर्तमान काल - पु. लि. -  बुवा आउनुहुन्छ। (पिताजी आते हैं।)

                      स्त्री. लि. - आमा आउनुहुन्छ। (माँ आती हैं।)

भविष्यत् काल में भी यही प्रक्रिया दोहराई जाती है।

*नेपाली में प्राणी स्तर पर लिंग का असर क्रिया में नहीं पड़ता।

उदाहरण - गाई - गोरू (गाय -बैल)

   एक वचन                                                    बहुवचन

   गाई आयो। (गाय आई।)                                 गाई आए। (गायें आईं।)

   गोरू आयो। (बैल आया।)                                 गोरू आए। (बैल आए।)

* नेपाली मानव एवं प्राणी से इतर सभी वस्तुएँ पुल्लिंग के तौर पर प्रयोग की जाती है।

 उदाहरण - बस, पृथ्वी, आँख, पैर

   1. बस आयो। (बस आई।)

   2. पृथ्वी घुम्छ। ग्रह घुम्छ। (पृथ्वी घूमती है। ग्रह घूमता है।)

   3. आँखो दुख्छ। खुट्टो दुख्छ। (आँख दुखती है। पैर दुखता है।)

       लिंग की चर्चा के साथ-साथ वचन की भी चर्चा हो चुकी है। नेपाली में अधिकतर एकवचन संज्ञा एवं सर्वनाम में हरू शब्दांश जोड़ने पर बहुवचन बनता है। यह मानव, पशु-प्राणी तथा निर्जीव वस्तुओं में समान रूप में होता है।

नेपाली भाषा शास्त्र में पश्चिम का योगदान

       नेपाली भाषा में व्याकरण लेखन का पहला श्रेय अंग्रेजी विद्वान जे.ए. एटन को जाता है। उनके द्वारा लिखित व्याकरण पुस्तक में ग्रामर अफ द नेप्लीज ल्याङवेज  सन् 1820 में कलकत्ता से प्रकाशित हुआ था। यह रोमन लिपिमा लिखित व्याकरण था। इस दिशा में दूसरा प्रयास टर्नबुल ने किया था। उनका नेपाली ग्रामर एण्ड इङ्ग्लिश नेपाली, नेपाली इङ्ग्लिश भोकाबुलरी (सन् १८८७)गोर्खाली एण्ड पर्वते ग्रामर एण्ड भोकाबुलरी (सन् 1904) तथा नेपाली ग्रामर एण्ड भोकाबुलरी (सन् 1923) पुस्तकें  प्रकाशित हैं। इस दिशा में आर. किल्गोर का भी महत्वपूर्ण योगदान है। उनका इंग्लिश-नेपाली शब्दकोश (1922), लिलि टर्नर लिखित नेपाली-अंग्रेजी शब्दकोश (1931) ने भी नेपाली भाषा को व्यवहारिक बनाने भी अहं भूमिका निभाई है। नेपाली भाषा व्याकरण एवं शब्दकोश निर्माण में पारसमणि प्रधान, सूर्यविक्रम ज्ञवाली, सोमनाथ सिग्द्याल, गोपाल पाण्डे, बालकृष्ण पोखरेल जैसे कई नेपाली विद्वानों का महत्वपूर्ण योगदान रहा है जिनके अथक प्रयास के कारण नेपाली भाषा ने मानक रूप प्राप्त किया है।

       वर्तमान नेपाली व्याकरण का प्रारूप भी कुछ मायनों में अंग्रेजी व्याकरण के समरूप है। शब्दों के वर्गीकरण से लेकर शब्द-भेद (Parts Of Speech), वाक्य (Sentence), संधि (joining), समास (Compound), सरल वाक्य (Simple Sentence), संयुक्त वाक्य (Compound Sentence), अन्विति (Agreement), ध्वनि विज्ञान, वाक्य विज्ञान आदि अंग्रेजी व्याकरण के तर्ज पर ही लिखे जाते हैं, भले ही इसकी भाषिक व्यवस्था भिन्न हो। पूर्ण विराम को छोड़कर सभी विराम चिह्न अंग्रेजी से ही लिए गए हैं। व्याकरण में लेखन जैसे - पत्रलेखन, निबंध लेखन, अनुच्छेद लेखन, संदेश लेखन आदि अंग्रेजी के प्रारूप के अनुसार ही लिखे जाते हैं।

नेपाली भाषा की संगणकीय चुनौतियाँ और संभावनाएँ

       तकनीक और इंटरनेट के युग में नेपाली भाषा के परिदृश्य निरंतर बदल रहे हैं। संगणकीय परेशानियाँ धीरे-धीरे स्वत: कम होती जा रही है। आज कंप्युटर में नेपाली टाइपिंग के लिए अपनी पसंदीदा फंट चुन सकते हैं। मोबाईल में भी बाकायदा नेपाली में टाइप किया जा सकता है। गौर से देखा जाए तो कंप्युटर पर नेपाली के अनुप्रयोग से जुड़ी समस्त बाधाएँ लगभग समाप्त हो चुकी हैं। इसमें तकनिकी दृष्टि से सबकुछ संभाव्य लगती है। युनीकोड, मशीनी अनुवाद, ओपन ट्रू टाइप फोंट्, ग्राफिक यूजर्स इंटरफेस, स्पीच टु टेकस्ट, टेक्स टू स्पीच, सर्च इंजन, लिप्यंतरण, स्पेलिंग चेकर, ऑपरेटिंग सिस्टम में भाषा चयन की सुविधा, सोशल नेटवर्किंग में भाषा चयन सुविधा आदि नि:शुल्क संभव हो गए हैं। नेपाली में अभी भी अंग्रेजी की तरह कोई भी फंट हर कंप्युटर में खुलता नहीं हैं। यही एक समस्या है पर यूनिकोड में कन्वर्ट करने के बाद ही यह संभव हो सका है।

निष्कर्ष

       पश्चिमी नेपाल के दुल्लू प्रांत से अस्तित्व में आई नेपाली भाषा अपनी विकास यात्रा में विभिन्न नाम से विभूषित होती अपनी विकास यात्रा में अग्रसर हुई है। आधुनिक काल में आकर इसे नेपाली भाषा के रूप में प्रतिष्ठा मिली। अपनी यात्रा के मध्यकाल में भारतीय भाषाओं के संपर्क में आने से इसके रूप में काफी परिवर्तन आया और इसका संपर्क क्षेत्र भी विस्तृत हो गया। यह भारतीय प्रांतों में भी व्यवहृत होने लगी, जिससे हिंदी, उर्दु तथा स्थानीय भाषाओं के शब्द नेपाली में जुड़ गए और इसके शब्द भंडार में अभूतपूर्व वृद्धि होती गई। वर्तमान में यह प्रेस, रेडियो, सिनेमा, शिक्षा, सामाजिक संजाल, इंटरनेट, गूगल, वर्चुअल प्लेटफार्म आदि में व्यापक रूप में प्रयोग में लाई जाने वाली एक प्रमुख भाषा के रूप में उभरी है। इसके संरक्षण में नेपाल और भारत दोनों का संयुक्त प्रयास रहा है। आज यूरोप, अमेरिका, अस्ट्रेलिया, कनाडा, हङकङ, म्यानमार, भूटान आदि देशों में नेपाली में भाषिक-सांस्कृतिक कार्यक्रम तथा स्तरीय पत्र-पत्रिकाएँ प्रकाशित हो रही हैं। अनुवाद के माध्यम से नेपाली साहित्य विश्व साहित्य में अपना स्थान बना रहा है। व्यवहार क्षेत्र की व्यापकता ने इसके स्वरूप को और निखारा है। आज नेपाली भाषा विश्व की अन्य विकसित भाषाओं की बराबरी में आने की होड़ में है, जो इसकी विकासशीलता का परिचायक है।

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लेखक परिचय

नाम - डा. गोमा देवी शर्मा

जन्मस्थान - मणिपुर

शिक्षा- एम.ए. हिंदी एवं नेपाली, पीएचडी

पेशा - अध्यापन, पीजीटी हिंदी, एपीएस नारंगी, गुवाहाटी

वर्तमान पता - दलबारी, सातगाँउ, गुवाहाटी

प्रकाशित रचनाएँ - 1. नेपाली भाषा र संस्कृति (2012)

              2. मणिपुरमा नेपाली साहित्य एक अध्ययन (2016)

              3. भारतीय नेपाली साहित्यको विश्लेषणात्मक इतिहास (2018)

              4. आतुर शब्द (हिंदी साझा कविता संकलन) 2018

सम्पादन       1. साहित्य लहर (हिंदी कविता सङ्कलन, 2021)

              2. इक्कीस लोककथाएँ, असम (2021)

              3. इशान आलोक (2023)

पुरस्कार -      1. गोर्खाज्योति सम्मान (2016)

              2. पूर्वोत्तर हिंदी साहित्य अकादमी सम्मान (2017)

              3. शहीद निरंजनसिंह छेत्री सम्मान - 2021

              4. लेखक सम्मान, असम सरकार (2021)

              5. राष्ट्रीय पुरस्कार, हाम्रो स्वाभिमान ट्रस्ट, दिल्ली, 2022

संलग्नता - पूर्वोत्तर हिन्दी अकादमी, मणिपुर इकाई की अध्यक्ष

          गोर्खा ज्योति प्रकाशन मणिपुर (व्यस्थापक)

          आगमन परिवार -आजीवन सदस्य

          अध्यक्ष,वरिष्ठ नागरिक काव्य मंच, असम पूर्वोत्तर

हिंदी एवं नेपाली भाषा में 20 से ऊपर शोध लेख प्रकाशित। ऑलइंडिया रेडियो गुवाहाटी तथा मणिपुर से कई रेडियो वार्ताएँ प्रसारित।

सहायक संदर्भ श्रोत

1. ऐतिहासिक कालमा नेपाली भाषा र साहित्य - मोहनराज शर्मा-1974

2. नेपाली भाषा र साहित्य-बालकृष्ण पोखरेल-रत्न पुस्तक भंडार-1975

3. नेपाली भाषा र संस्कृति - डॉ. गोमा अधिकारी, 2016

4. भारतीय नेपाली साहित्यको विश्लेषणात्मक इतिहास- डॉ.गोमा देवी शर्मा- 2018

5. https://hi.wikipedia.org › wiki › नेपाली भाषा