25 मार्च, 2023

मणिपुर में नेपाली नाट्य-परम्परा और प्रवृत्ति


भूमिका
        मणिपुर राज्य में नेपाली साहित्य की शुरुआत सन् 1893 में तुलाचन आले द्वारा रचित मणिपुरको लड़ाईको सवाई से हुई है। इस परंपरा को आगे बढ़ाते हुए आज दर्जनों रचनाकार विविध विधाओं के माध्यम से मणिपुर में नेपाली साहित्य का स्वरूप गढ़ने में अपना योगदान दे रहे हैं। यह ज्ञात है भारत की स्वतंत्रता से पूर्व ही मणिपुर की भूमि में नेपाली नाटक रचना परंपरा का सूत्रपात हो चुका था। प्रारंभ में धार्मिक विषयों पर आधारित नाटकों का प्रचलन था। मणिपुर में नेपाली नाटक का सूत्रपात 1942 में होने के प्रमाण प्राप्त होते हैं। प्रारंभिक नाटकों की रचना केवल मनोरंजन के उद्देश्य से की जाती थी। मणिपुर में बड़ा दशैं (दुर्गा पूजा) और तिहार (दिवाली) के अवसर पर नाटक लिखने और मंचन की परंपरा लंबे समय तक चलती हुई दिखाई देती है। आज भी ग्रामीण स्तर पर यह परंपरा जीवित है। विपूल मात्रा में नेपाली नाटकों की रचना एवं मंचन होने के वावजूद भी इन्हें पुस्तककाकार रूप देने में रचनाकारों एवं साहित्यिक संस्थाओं ने कोई जागरूकता नहीं दिखाई। यह खेद की बात है।
        मणिपुर में नेपाली नाटक को विशिष्ट रूप देने एवं आगे बढ़ाने का काम पत्रकार, कवि, गीतकार और नाटककार कमल थापा 'प्रकाश' ने किया है। इस क्षेत्र में उनका अविस्मरणीय योगदान रहा है। उन्होंने लगभग एक दर्जन नाटकों का प्रणयन करके मणिपुर में नेपाली नाटक परंपरा को एक ठोस धरातल प्रदान किया है। 
        किसी भी स्थान विशेष पर भाषा-साहित्य के व्यवहार के पीछे किसी भाषा-भाषी विशेष के समाज के अस्तित्व का होना अनिवार्य होता है। मणिपुर में नेपाली भाषी गोर्खा समाज के उदय के पीछे कई ऐतिहासिक कारण रहे हैं। इसका एक कारण असम राइफल्स और आज़ाद हिंद फौज है। सेना में कार्यरत गोर्खा सैनिकों में कुछ साहित्य प्रेमी भी थे। उनका साहित्य प्रेम मणिपुर के गोर्खा समाज में नाट्य परंपरा के सूत्रपात का कारण बना।
        इम्फाल में स्थित चौथा असम राइफल्स मणिपुर नेपाली नाटक की जन्मभूमि थी। दुर्गापूजा के अवसर पर अस्थायी मंच का निर्माण करके एकांकी, नाटक, प्रहसन या लघु नाटकों का मंचन किया जाता था। ये नाटक मौलिक न होकर धर्मशास्त्र पर आधारित होते थे। धर्मशास्त्रों की कहानियों, प्रसंगों आदि को नाटकीय आवरण प्रदान करके प्रस्तुत करने की परंपरा सालों तक चली।
        नाटक के क्षेत्र में मेजर हेमबहादुर लिम्बू का स्थान अग्रणी है। इसमें कोई संदेह नहीं है कि वे मणिपुर के गोर्खा समुदाय के पहले नाटककार थे। 1942 में दुर्गा पूजा के अवसर पर लिंबू द्वारा निर्देशित नाटक राजा हरीश्चंद्र का चौथे असम राइफल्स में सफलतापूर्वक मंचन किया गया था।
        इसकी सफलता ने उनके मनोबल को मजबूत किया और उसके बाद उन्होंने क्रमशः कृष्णजन्म, सीताहरण और सती रानक देवी जैसे नाटकों का सफलतापूर्वक मंचन किया। इसके बाद, यह तथ्य भी सामने आया है कि प्रतापचंद्र राई द्वारा निर्देशित नाटक जयद्रथ वध भी उस समय बहुत चर्चित रहा।
        ऊपरोक्त नाटककारों के बाद चौथे असम असम राइफल्स में टी.बी चंद्र सुब्बा मौलिक नाटककार के रूप में दिखाई देते हैं। उन्होंने कालिया दमन और बहिनीको लागि जैसे ​​नाटकों का सफल मंचन किया। कालिया दमन कृष्णचरित्र पर आधारित नाटक था जबकि बहिनीको लागि नितांत मौलिक नाटक था। इस प्रकार टी.बी चंद्र सुब्बा मणिपुर के नेपाली भाषा में लिखने वाले प्रथम मौलिक नाटककार के रूप में उभरे।
        1942 में शुरू हुई नेपाली नाट्य-परंपरा 1950 तक असम राइफल्स जैसे फौजी छावनियों जारी रही। इसके बाद मणिपुर के अन्य स्थानों में भी नाटकों के मंचन का काम शुरू हुआ। दुर्गापूजा और दिवाली के अवसर पर एकांकी, हास्य-व्यंग्य या अन्य नाटकों के मंचन की परंपरा लंबे समय तक चलती रही।
        कांग्लातोंग्बी निवासी स्वर्गीय कमल थापा 'प्रकाश' ने मौलिक नेपाली नाटक के क्षेत्र में महत योगदान दिया है। अपने जीवन के कम समय में, उन्होंने दस से अधिक मौलिक नाटकों का प्रणयन और मंचन किया। उनके असामयिक निधन के साथ, यह परंपरा सुस्त पड़ गई। ये सभी नाटक पांडुलिपियों तक सीमित रहे। वर्तमान में गोर्खा ज्योति प्रकाशन ने कमल थापा द्वारा रचित त्याग शीर्षक नाटक प्रकाशित किया है और अन्य नाटकों को प्रकाशित करने की योजना भी बनाई जा रही है।
कमल थापा 'प्रकाश'
        1958 में चिंगमैरोंग नेपाली बस्ती, इम्फाल में जन्मे, कमल थापा कम उम्र से ही विचारशील थे। कमल थापा 'प्रकाश' ने 70 के दशक में नाटक के क्षेत्र में प्रवेश किया। उनके सभी नाटक सामाजिक यथार्थ पर आधारित हैं। सामाजिक विघटन, सामाजिक संबंधों, पारिवारिक समस्याओं, ग्रामीण राजनीति, आदर्श राजनीति आदि के मुद्दों को ध्यान में रखते हुए लिखा गया है। 1973 में उनका पहला मौलिक नाटक सिन्दूर कांग्लातोंग्बी में मंचन किया गया था। इस नाटक ने कमल थापा को एक सफल नाटककार के स्थान पर प्रतिष्ठित किया। इसके बाद उन्होंने अन्य नाटकों का लेखन और मंचन किया। हारजीत (1975), सुस्केरा (1977), निश्चल स्मृति, ममता, कलंक, घर-घर को कथा आदि का मंचन बड़ी धूमधाम से किया गया। 1978 में अखिल मणिपुर गोर्खा छात्र संगठन, मणिपुर के तत्वावधान में उन्होंने पाओना बाज़ार, इम्फाल में स्थित रूपमहल थिएटर में स्वर्गीय लक्ष्मीप्रसाद देवकोटा रचित नाटक मुनामदन का मंचन किया। इसके सफल मंचन के बाद, इस नाटक की माँग मणिपुर के अन्य क्षेत्रों में हुई। इसे कोलोनी, असम राइफल्स, साइकुल आदि क्षेत्रों में बड़े उत्साह के साथ प्रदर्शित किया गया। इस तरह कमल थापा 'प्रकाश' स्वयं को नेपाली नाटक की दुनिया में एक सफल नाटककार के रूप में स्थापित करने में सफल हुए। उनके द्वारा रचित नाटक ममता अधूरा रह गया है। इस नाटक के पूरा होने से पहले वे बीमार पड़ गए और सदा के लिए इस दुनिया से विदा हो गए। इस प्रकार, मणिपुर के नेपाली नाटक साहित्य ने 1991 में एक चमकता सितारा खो दिया, जिसकी भरपाई आज तक नहीं हो पाई है। 
        त्याग नाटक कमल थापा का पहला प्रकाशित पूर्णांक नाटक है। यह अक्तूबर 2015 में गोर्खा ज्योति प्रकाशन द्वारा प्रकाशित किया गया। यह पारिवारिक समस्याओं पर आधारित  नाटक है। इसे 20 दृश्यों में विभाजित किया गया है लेखक ने पात्रों के माध्यम से वास्तविक जीवन की घटनाओं को चित्रित किया है। इसकी भाषा सरल, सहज नेपाली है। पात्रों के स्तर अनुरूप कहीं-कहीं अंग्रेजी शब्दों का प्रयोग भी मिलता है। संवाद संक्षिप्त और घटनाक्रम को आगे बढ़ाने में सक्षम हैं। इसमें मंचन सभी गुण पाए जाते हैं। 
        त्याग नाटक समय और स्थिति को ध्यान में रखते हुए रचित है। इसके माध्यम से एक आदर्शवादी परंपरा की स्थापना करने का प्रयास किया गया है। 70 के दशक के मणिपुरी नेपाली भाषी जनजीवन की सामाजिक रीति-रिवाज, मान्यता आदि नाटक का वर्ण्य विषय है। इसमें शिक्षा को अंग्रेजी परंपरा के पर्याय के रूप में मानने वाली एक ऐसी युवा पीढ़ी का चित्रण किया गया है, जो ड्रग्स या अन्य कुप्रवृत्ति को सभ्यता मान कर चलती है।
 
महेश पौड्याल
        महेश पौड्याल मणिपुर के दूसरे कुशल नाटककार हैं। उन्होंने 1990 में इरांग, ​​मणिपुर में दाजूको कर्तव्य नाटक लिखा और मंचन किया। उन्होंने 1999 में देशको माटो, और 2001 में दाइजो कांग्लातोंग्बी, शांतिपुर में मंचित नाटक हैं। उन्होंने प्लेटो का नाटक एलेगोरी आफ द केभ (2002) का नेपाली अनुवाद और मंचन किया। चंगा (2008), आमा न हुँदा एक साँझ (2011) उनकी प्रकाशित नाट्य रचनाएँ हैं।
 
फुटकर नाटक
        मणिपुरी नेपाली समाज में कई ऐसे रचनाकार हैं, जिन्होंने नाटक रचना में योगदान दिया है। इन नाटकों का मंचन विशेष रूप से दुर्गा पूजा के अवसर पर किया जाता है। ये नाटक केवल मंच तक सीमित दिखाई देते हैं। यहाँ ऐसे नाटककारों और उनके द्वारा रचित नाटकों का नामोल्लेख करने का प्रयास किया गया है।
        मणिपुर का कांग्लातोंग्बी प्रांत शुरू से ही नेपाली साहित्य का गढ़ रहा है। इस क्षेत्र में बड़ी संख्या में नाटक लिखे और मंचित किए गए। ऐसे नाटकों में चूड़ामणि चापागाईं का प्रहारको चोट (1984), नौलो बिहान (1985), वेदना (1987), आ-आफ्नो व्यथा (1988), तारासिंह बिष्ट रचित आँसू (1984), फेरि खाँडो पखाल्नै पर्छ (1986) शामिल हैं। चूड़ामणि खरेल का अर्चना (1986), रोशन कुमार उप्रेती का त्याग एउटा प्रेमकथा (2001), लक्ष्मण शर्मा का उपहार (2002), समर्पण (2005), शिवकुमार बस्नेत रचित महिमा (2003) दुर्गा पूजा के अवसर पर मंचित नाटक हैं। 
        कई नाटकों का मंचन कौब्रुलैखा गाँव में भी किया गया। ऐसे नाटकों में पं. नारायणप्रसाद शर्मा द्वारा रचित हरिश्चंद्र (1972) और अमर प्रेम (1976), छोरीको जन्म हारेको कर्म (1978), प्रेम दाहाल रचित बदला (1884), गौरीमान भट्टाराई का ख़ूनको कसम (1991) प्रमुख मंचित नाटक है।
        मुकुली गाँव से नंदलाल बजागाईँ रचित आँसू सरिको हाँसो, अकाल मृत्यु, अभिलाषा, पवित्र प्रेम, अनुसन्धान, बिदाई, स्व. लक्ष्मीप्रसाद मैनाली रचित प्रतिशोध (1993), तोरीबारी से शिवलाल भण्डारी, इरांग से मणिकुमार पौड्याल, गोविन्द न्यौपाने र टिकाराम पौड्याल,गोमा शर्मा आदि के द्वारा रचित नाटकों का मंचन समय-समय पर किया जा चुका है।  
        प्रकाश सिवाकोटी 90 के दशक में कालापहाड़ क्षेत्र में उभरने वाले एक अच्छे नाटककार हैं। सिवाकोटी खुद कहते हैं कि उनके कई नाटकों का मंचन हर साल होता आ रहा है। उनके सभी नाटकों में सामाजिकता का पुट विद्यमान हैं।  
    निष्कर्ष -  सन् 1893 में तुलाचन आले द्वारा शुरू की गई मणिपुर की नेपाली साहित्यिक परंपरा संतोषजनक गति से आगे बढ़ती हुई दिखाई देती है। अन्य विधाओं की तुलना में नाट्य विधा में भारी न्यूनता देखी जाती है। भले इस क्षेत्र में रचित सभी नाटक पुस्तक के रूप में प्रकाश में नहीं आए, लेकिन असंख्य नाटकों के प्रणयन और मंचन से इनकार नहीं किया जा सकता। गोर्खाज्योति प्रकाशन, नेपाली साहित्य परिषद मणिपुर, सिरोई सिर्जना परिवार जैसी साहित्यिक संस्थाएँ ऐसे नाटकों की खोज, संकलन और प्रकाशन के कार्य में अवश्य अपनी अहम भूमिका निर्वहन कर सकती हैं। आशा है इस क्षेत्र में और भी संस्थाएँ आगे आएँगी और नेपाली नाटक साहित्य के विकास में योगदान देंगी। 
 

सन्दर्भ ग्रंथ

1.  भारतीय नेपाली साहित्यको विश्लेषणात्मक इतिहास - गोमा दे.शर्मा, शोधग्रन्थ, मणिपुर  विश्वविद्यालय, 2009

2.  मणिपुरमा नेपाली जनजीवन, मुक्ति गौतम - नेपाली साहित्य परिषद, 1999

3. मणिपुरमा नेपाली साहित्यः एक अध्ययन - डा. गोमा दे. शर्मा, गोर्खाज्योति प्रकाशन, 2016

4. मौखिक श्रोत - रामप्रसाद पौडेल, चुड़ामणि चापागाईं, शिवकुमार बस्नेत (प्रधान- काङ्ग्लातोंग्बी ग्राम पञ्चायत) तारासिंह विष्ट आदि।

शहीद निरॆजनसिंह छेत्री

                                        सूबेदार निरंजन सिंह छेत्री

(मणिपुर की भूमि में आत्माहुति देने वाले गोर्खा शहीद)

 


 
                                                       डॉ. गोमा देवी शर्मा

                                                       सातगाँव, गुवाहाटी

       भारत का इतिहास हजारों सपूतों के बलिदानी रक्त से रंगा हुआ है। कई देशभक्तों ने अपनी मातृभूमि की परतंत्रता की बेड़ी को काटने के लिए हँसते-हँसते फाँसी का फंदा चूम लिया। कईयों ने अपना घर-बार छोड़ा। अनगिनत शूर-वीरों ने परतंत्रता के विरुद्ध कालापानी की सजा को स्वीकार कर लिया। असंख्य देशभक्त क्रूर अंग्रेजों की गोलियों के शिकार बने। कई जघन्य से जघन्य सजा के हकदार बने। कई बलिदानियों के शौर्य की गाथा भारत के इतिहास में दर्ज है पर असंख्य गुमनाम वीर भी हैं, जिन्हें भारतीय इतिहास ने अपने किसी भी पन्ने में इन्हें स्थान देना मुनासिब नहीं समझा। भारतीय बच्चों ने मुगलों को पढ़ा, बड़े-बड़े लॉर्डों को रटा और परीक्षाएँ पास कर गए मगर अपने शहीदों की जानकारी से वे आज तक वंचित रह गए। ऐसे ही एक वीर थे निरंजन सिंह छेत्री। भारत के इतिहास में इस जाँबाज सूबेदार का नाम हमेशा से गुमनाम रहा है। आज मैं इस नरसिंह की जीवन गाथा पर प्रकाश डालकर आज़ादी के अमृत पर्व पर उन्हें भावभीनी श्रद्धांजलि अर्पण करना चाहती हूँ। 

       निरंजन सिंह छेत्री मणिपुर की भूमि में शहीद होने वाले प्रथम नेपाली भाषी गोर्खा थे। उनका जन्म सन् 1851 को उत्तर प्रदेश के हरदोई जिले में हुआ था। उनके पिता का नाम दरिया सिंह छेत्री था। बचपन से ही वे बड़े जोशीले और शूरवीर थे। उस समय ब्रिटिश साम्राज्य की जड़े भारत में दूर दूर तक गहराती जा रही थीं। देशी राजाओं ने धीरे-धीरे अंग्रेजों के आगे घुटने टेकने शुरु कर दिए थे। प्लासी के युद्ध (1757) के बाद अंग्रेजी शासन भारत में सबसे ताकतवर सत्ता के रूप उभर रही थी। बढ़ता हिंदू मराठा साम्राज्य मराठा प्रांत में सिमटने को मज़बुर हुआ। धीरे-धीरे देश की लगाम अंग्रेजों के हाथों में चली गई। अब अंग्रेज गाँव-गाँव से देशी नौजवानों को सैनिक जीवन के सुख-चैन के सपने दिखाकर अंग्रेजी सेना में भर्ती करने लगे, तो देशी नौजवानों की एक बड़ी जमात सेना में भर्ती हो गई। युवा निरंजन सिंह छेत्री भी 34वीं बंगाल नेटिव इन्फैंट्री में बतौर सिपाही भर्ती हो गए। उनका रेजिमेंट कछार में तैनात था जो छह सप्ताह बाद भंग कर दिया गया था। रजिमेंट भंग होने के  बाट वे अपने पैतृक गाँव चले गए पर वहाँ उनका मन नहीं लगा। कुछ समय बाद वे बर्मा (वर्तमान म्यानमार) की राजधानी रंगून गए। रंगून में उनकी मुलाकात एक मणिपुरी युवक से हुई। उनके साथ वे मणिपुर आए। मणिपुर तब तक एक स्वतंत्र रियासत था। युवक ने उनका परिचय मणिपुर के युवराज टिकेंद्रजीत से कराया। युवराज टिकेंद्रजीत उनके व्यक्तित्व से काफी प्रभावित हुए और उन्हें एक सैनिक के रूप में नियुक्त किया। थोड़े ही दिनों में उन्होंने टिकेंद्रजीत का दिल जीत लिया इसलिए उन्हें सेना के सूबेदार के पद पर पदोन्नति दी गई।

       भारत में अंग्रेजों का दबदबा बढ़ता जा रहा था। एक के बाद एक भारतीय राज्यों को इस्ट इंडिया कंपनी शासन में मिलाया जा रहा था। उस समय मणिपुर दरबार आंतरिक कलह से अशांत था। महाराजा चंद्रकीर्ति के बेटों के बीच सिंहासन की लड़ाई हो रही थी। टिकेंद्रजीत की राजनैतिक सूझबूझ और समझदारी से प्रभावित अधिकांश अधिकारी और जनता उन्हें युवराज बनाना चाहते थे। उधर उनके सौतेले भाई महाराज सूरचंद्र इसके पक्ष में नहीं थे इसलिए टिकेंद्रजीत के समर्थकों ने महाराज के खिलाफ विद्रोह कर दिया। दरबारी कलह से निपटने के लिए तत्कालीन महाराज सूरचंद्र ने अंग्रेजों से हाथ मिलाया इससे अंग्रेजों के लिए मणिपुर दरबार में हस्तक्षेप करने में आसान हो गया।

       अंग्रेज मौके की तलाश में थे। उनके लिए सूरचंद्र का प्रस्ताव किसी कीमती उपहार से कम नहीं था। महाराजा की सहायता के लिए ब्रिटिश सरकार ने सैनिकों का एक बड़ा जत्था मणिपुर में भेजा। अंग्रेजों ने सूरचंद्र को फिर से मणिपुर की राजगद्दी पर बिठाने और अदालत में पेशी के बहाने टिकेंद्रजीत को गिरफ़्तार करने की गुप्त योजना बनाई। टिकेंद्रजीत को ब्रिटिश की चाल की भनक लग गई और वे बीमारी के बहाने अदालत में पेश ही नहीं हुए। ब्रिटिश सरकार की योजना को मणिपुर दरबार ने खारिज कर दिया। 

        इसके परिणाम स्वरूप ब्रिटिश फौज ने 24 मार्च 1891 युवराज टिकेंद्रजीत के भवन एवं राजमहल पर तीन दिशाओं से आक्रमण कर दिया। हमले के दौरान निरंजन सिंह छेत्री मणिपुरी की सेना के कमांडर थे। अपने सहयोगियों के साथ उन्होंने ब्रिटिश सेना को बड़ी क्षति पहुँचाई। राजमहल और किले की रक्षा में उन्होंने पाँच ब्रिटिश सैनिकों को मार गिराया। अंग्रेजी फौज को पीछे हटना पड़ा। इसके बाद अंग्रेजों ने पुन: तीन दिशाओं (कोहिमासिलचर और तमू) से मणिपुर पर आक्रमण कर दिया। मणिपुरी सेना के अन्य सैन्य अधिकारी इस आक्रमण का करारा जवाब देने के लिए दल बल के साथ निकल पड़े। अंग्रेजों का लक्ष्य टिकेंद्रजीत को बन्दी बनाना था। इस स्थिति से अवगत होकर निरंजनसिंह क्षेत्री युवराज टिकेंद्रजीत की सुरक्षा में तैनात रहे।

       25 अप्रैल 1891 (तुलाचन आले रचित मणिपुरको लड़ाईको सवाई के अनुसार) को मणिपुरी और ब्रिटिश सेना  के बीच खोंगजोम नामक स्थान पर भयंकर युद्ध हुआ जिसे इतिहास में एंग्लो - मणिपुरी युद्ध के नाम से जाना जाता है। युद्ध में हजारों सैनिक शहीद हुए। आधुनिक हथियारों से संपन्न अंग्रेजी सेना के सामने मणिपुरी सेना निरंतर कमजोर पड़ती जा रही थी। इस विरोध को और कमजोर करने के लिए अंग्रेजों ने खाद्य सामग्री बंद कर दी। भूखे और लाचार सैनिक वीरता के साथ अंतिम साँस तक मातृभूमि की रक्षा के लिए लड़ते रहे। सैन्य बल कमजोर पड़ते ही अंग्रेज सैनिकों ने राज दरबार को घेर लिया। दरबार में घुसकर मणिपुर दरबार को लूट लिया। 27 अप्रैल 1891 तक अंग्रेजों ने मणिपुर दरबार पर पूर्ण रूप से कब्जा कर लिया। शासन सत्ता हथियाने के बाद अंग्रेजों ने मणिपुरी सेना के कई बहादुर सैनिकों को बंदी बनाया और फाँसी पर चढ़ा दिया।

       निरंजन छेत्री, चोंगथामिया, टिकेंद्रजीत, पाओना व्रजवासी, थाङगल जनरल, काजाओ सिंह जमादार, चिरई नागा जैसे वीरों पर अंग्रेजों ने राजद्रोह का मुकदमा चलाया। सुबेदार निरंजन सिंह छेत्री पर अंग्रेजों का विरोध करनेस्थानीय सैनिकों को पूरे दिन अंग्रेजों के खिलाफ लड़ने के लिए प्रोत्साहित करने और भारी अंग्रेजी सैन्य बल को हताहत करने के आरोप में मृत्युदंड का एलान कर दिया। जून, 1891 को कङ्ला के पश्चिमी द्वार पर उन्हें फाँसी दी गई और युवराज टिकेंद्रजीत  को 13 अगस्त, 1891 को फाँसी पर लटका दिया गया। निरंजन सिंह मातृभूमि की रक्षा एवं स्वाधीनता ह्तु शहीद हो गए। उन्होंने आत्माहुति देकर संपूर्ण मणिपुर तथा गोर्खा समुदाय के लिए देश मर-मिटने का एक मिसाल कायम किया। उनके द्वारा जलाई गई आत्माहुति की परंपारा की ज्वाला उनके पीछे भी धधकती रही। स्वाधीनता संग्राम में असंख्य गोर्खा वीरों ने देश के लिए हँसते-हँसते फाँसी के फंदे को चूमा और मातृभूमि का ऋण चुकाया और यह क्रम आज भी जारी है।

       लंबे समय तक निरंजनसिंह छेत्री का परिचय मणिपुर तथा भारत के इतिहास से ओझल रहा। इनका परिचय ढूँढ निकालने में मणिपुर स्थित गोर्खा छात्र संघ, अन्य सामाजिक संगठन, मुक्ति गौतम, ड़ॉ. गोमा शर्मा, भवानी अधिकारी, घनश्याम आचार्य जैसे लेखकों ने बड़ी भूमिका निभाई है। भारतीय गोर्खा परिसंघमणिपुर शाखा ने सन्  2021 में इम्फाल जिला अंतर्गत काङलातोंग्बी ग्राम में शहीद निरंजन सिंह छेत्री की प्रतिमा स्थापित किया है जिसे राज्य के मुख्यमंत्री श्री एन. बीरेन ने  एक भव्य कार्यक्रम में गत मार्च 2021 के दिन लोकार्पित किया है। बोर्ड आफ सेकेंडरी एजुकेसन, मणिपुर ने शहीद निरंजन सिंह छेत्री का परिचय दसवीं कक्षा के पाठ्यक्रम में समावेश करके वर्तमान एवं भावि पीढ़ी को उनके विषय में जानने का अवसर प्रदान किया है। प्रत्येक वर्ष आज जून को मणिपुरी गोर्खा समाज में राज्यव्यापि स्तर पर शहीद दिवस के रूप में बड़े धूमधाम के साथ मनाया जाता है। मणिपुर के अन्य शहीदों के साथ निरंजनसिंह छेत्री को भावभीनी श्रद्धांजलि प्रकट की जाती है। 

                         

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    संदर्भ स्रोत

1. डा. गोमा देवी शर्मा - मणिपुरमा नेपाली साहित्य: एक अध्ययन, प्रथम संस्करण - 2016

2. Dr Purushottam Bhandari - WHO IS WHO OF GORKHA MARTYRS OF INDIA (Period 1891 -2020 ), Vol. 1, 2021.

3Ghanashayam Acharya - Saheed Niranjan Singh Chhetry, 2021

4. MANIPUR “WHO IS WHO” 1891, Edited by Smt. Kh. Sarojini Devi, Deputy Director (Archives), Published by Manipur State Archives, Directorate of Art and Culture, Government of Manipur.

5. मुक्ति गौतम - मणिपुरमा नेपाली जनजीवन - 1999

6.स्रष्टा - भारतीय नेपाली शहीद विशेषांक – पश्चिम सिक्किम साहित्य प्रकाशनगेजिंग विशेषांक – वर्ष 21, अंक 47, मार्च – अप्रैल 2000.

 

11 अक्टूबर, 2022

भानुभक्त आचार्य र सातकाण्ड रामायण : एक अवलोकन

भानुभक्त आचार्य र सातकाण्ड रामायण : एक अवलोकन

                                                                  


                                    -ड. गोमा 

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     भानुभक्तले व्यास, वाल्मीकि, वेद, पुराण तथा उपनिषद्लाई पनि आदर्श मानेका छन्। त्यही आदर्शलाई आधार बनाएर उनले आफ्ना कृति निर्माण गरेका छन्।

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jpukg:  & HkkuqHkDrys lkrdk.M jkek;.k ¼1853½ dk lkFkS HkDrekyk ¼1853½] o/kqf”k{kk ¼1862½] iz”uksRrjh ¼1855½] jkexhrk ¼1859½ /ksjS QqVdj dforkg:dks jpuk ifu xjsdk Nu~~A HkkuqHkDrdks izfln~f/k lkrdk.M jkek;.kckV NA “kkL=h; ijEijk vuqlkj ;ks ,mVk egkdkO; हो। ;ldk ik=हरू mPpdqyhu] vkn”kZ j e;kZnk ikyd Nu~~A ;lek jkedks tUe nsf[k fy,j ysdj vURklEedks dFkk NA ;ldks ewy vk/kkj ckYehfd; jkek;.k gksA HkkuqHkDrys ;lykbZZ FkqizS ekSfyd dqjkg: tksMs+j usikfyRo iznku xjsdk Nu~~A ;lek vUrek jko.kRo ekfFk jkeRodks fot; ns[kkb,dks NA ;ks NUnबद्ध रचना होA “kknZqyfodzhfM+r] Hkqt³~xiz;kr] f”k[kfj.kh vkfn ;ldk izeq[k NUn gqu~A

      HkkuqHkDrh; jkek;.kdks धार्मिक, lkfgfR;d, भाषिक, सांस्कृतिक, राजनैतिक fo”ks’krk विशेषताले युक्त भएको कृति हो। mudks ys[kuhys iwjS usikyh leqnk;ykbZZ ,mVk fuf”pr j iq"V usikyh Hkk’kk iznku xuZs lQyrk ik,dks N ;lSys muykbZZ vkfndfodks :iek fo”oHkfj Lej.k xfjUNA  usikyh Hkk’kkdks ,d:irk HkkuqHkDrh; jkek;.kdks lCkS HkUnk Bwyks nsu gksA mudks Hkk’kkek vरू rRdkyhu jpukg: सरहa ikf.MR; izn”kZu] yk{kf.kd iz;ksx, O;³~X; j peRdkjdks vHkko पाइन्छA

             तर्छु छार समुद्र आज सहजै भन्या इरादा धरी

             श्रीरामका चरणार विंद मनले अत्यंत चिंतन गरि।

            भन्छन वीरहरूलाई ताहिँ हनुमान हे वीर हो पार तरी

            सीताजीकन भेट्दछु म अहिले जान्छु बड़ो वेग गरि।

पानी सरह सङगलो, सलल बग्ने र कुनै प्रयासै नगरि बुझ्ने नेपाली भाषाको लालित्य रामायणमा देक्न पाइन्छ।

jkeHkfDr lkfgR;dk izeq[k izo`fRrg:

1-         jkedks Lo:i

 jkeHkDr dfog:dk mikL; jke fo".kqdk vorkj gqu~ j m ijeczg~e Lo:Ik gqu~A jkek;.kckV mnkgj.k nzष्VO; N&

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2- leUo;kRedrk

jkeयणमा सामाजिक समन्वय भावनाको विराट रूप देख्न पाइन्छ। यसमा Kku] HkfDr j deZdks leUo;, fuxqZ.k j lxq.kको समन्वय, सामाजिक वर्ग-भेदको समन्वय, जातिभेदको अदभुत समन्यव देख्न पाइन्छA] tkfr&/keZ] vkn”kZ j O;ogkj vkfndks chpek jkezks leUo; ns[kkb,dks NA

4- HkfDrdkss Lo:i

jkeकाव्यमा जुन किसिमको भक्तिको वर्णन गरिएको छ यसykbZZ “kkL=h; “kCnk oS/kh HkfDr Hkusj tkfuUNA jkek;.kek Hkkxor iqjk.kek of.kZr uo/kk HkfDrdk izk;% lcS y{k.k ikbUNu~~A lRlax] Jo.k] dhrZUk] :Iklsou] ukeLej.k] iknlsou] nkL; ,oa l[; Hkko vkfn lcS jke HkfDrek ikbUNu~~A

5- m¡p&uhp] Hksn&Hkkodks fojks/k सामाजिक एकतामा बल

सामाजिक भेदभावले समाजको ढाँचालाई ठुलो क्षति पुर्याएको हुऩ्छ। यसमा एकता रहँदैन। मानिस मानिसमा भेदभाव हुनाले समरसता भन्ने कुरा रहँदैन। यस्तो स्थितिमा आदर्श समाजको कल्पना गर्न सकिँदैन। यस्तै परिस्थितिको फाइदा आक्रान्ताहरूले उठाएर समाजलाई ध्वस्त पार्ने कोशिश गर्छन। अन्य धर्मीहरूले यसैलाई आधार बनाएर आफ्नो धर्म र सामाजिक एकताको गुणगान गाउँदै एउटा मूलका दाजुभाइहरूलाई फुटाएर अर्को धर्म अंगाल्न प्रेरित गर्छन। यसैले रामायणमा कविले समाजमा जात कुल, पद सम्मान भन्दा श्रेष्ठ प्रेमलाई मानेका छन्। भक्तिलाई मानेका छन्।

“kcjh tLrh Hkhyuhdk twBk c;j [kk,j rRdkyhu lektek NqvkNwr ekUus m¡pks oxZ Hkfuus <ksaxhg:dk xkykek dfoys rksfM+yks FkIiM+ gkusdk Nu~~A lqxzho tLrk okujl¡x fersjh xk¡Luq, जाम्बवन जस्ता भालुलाई सलाहकारको उँचो स्थान दिनु j okuj lsukykbZZ vk¶uks lSU; “kfDrdks :iek lkFk fyuq जस्ता प्रसंगहरू सामाजिक HksnHkko मेटाउने प्रयासका mnkgj.kहरू gqu~A

6- ik= j pfj=&fp=.k

jkeयणका जम्मै ik=हरू शील र yksd e;kZnk पालक छन्। mfug:dks pfj= egku j vuqdj.kh; NA jke “khy j lkSUn;Zys भरिएका e;kZnkdk रक्षक हुन्। mfu vkn”kZdk Hk.Mkj Nu~~A lhrk ,mVh vkn”kZ iRuh gqu~A Hkjr j y{e.k vkn”kZ HkkbZZ gqu~A mfug:ek O;fDrxr LokFkZ ys”kek= ifu NSu~A nljFk vkn”kZ firk dkS”kY;k j lqfe=k vkn”kZ ekrk gqu~A dSdयीdks pfj= mfug: HkUnk fHkUUk NA m vk¶uq Nksjkss HkjrykbZZZ jktk cukmus LokFkZek vU/kh Hk,j jkeykbZ pkSng o’kZdks ouokl fnuका लागि jktk nljFkykbZZ ck/; xjkm¡fNuA jko.k vlR;dks izrhd gks j ;lS izdkjys guqeku आदर्श सेवक] lqxzho आदर्श मित्र vkfn lcS ik= e;kZnk j vkn”kZdk izfrikyd Nu~~A ;lek lr~ j vlr~] lTtu ,oa nqtZu vkfn lcS Fkjhdk ik=g:dks fp=.k xfj,dks N

रामायणका पात्रहरू कोरा आदर्श बोकेका उपदेशक मात्रै छैनन्। राम स्वयं अवतारी हुन्, उनकालागि असंभव केहि थिएन। तर उनले संपूर्ण रामायणमा एउटा अवतारी नभएर साधारण मानिसको भूमिकामा देखिएका छन्। कुनै बच्चालाई उपदेश दिँदा उसले कतिसम्म ती कुराहरू ग्रहण गर्छ\ तर त्यहि कुरा अभिभावक र ठुला बड़ाले कर्मको आधारमा गरेर देखाएको कुरा उसले अक्षरश लिन्छ। यै कुरा हामि भानुभक्तले सृजन गरेका रामको चरित्रमा पाउँछौं। उ परिवार र समाजकालागि मरिमेटछन्, पितृवियोग, पत्नीवियोगमा छटपटिन्छन्, लक्ष्मणलाई शक्तिवाण लाग्दा साधारण मानिस सरह रून्छन्। एकातिर उनको चरित्रमा कोमलता छ भने अर्कातिर शत्रुका निम्ति कठोरता पनि छ। उनले रावणसँग युद्ध गर्दा चमत्कारिक शक्ति देखाएका छैनन्, एउटा साधारण रणधीर योद्धाको रूपमा लड़ेका छन्। यसरी अन्य प्रसंगहरूले पनि कर्ममा आधारित आदर्श बोकेको पाइन्छ।

रामायणका नारीपात्र

रामायणमा जसरी विभिन्न भूमिका निर्वहन गर्ने पुरुषपात्रहरूको चित्रण भएको छ त्यस्तै ननारी पात्रहरूको ,जनामा पनि भानुभक्तले आफ्नो कृपणा देखाएका छैनन, कुनै भेदभाव गरेका छैनन्। रामायणको मंगलाचरणमा देवीहरूको स्तुतीले भानुभक्तको हृदयमा मातृशक्ति का लागि अपार श्रद्धा भएको कुरा बुझिन्छ भानुभक्तका नारी पात्र समाजका विभिन्न वर्गको प्रतिनित्व गर्दछन। कौशल्या, सीता, सुमित्रा, सुनयना, उर्मिला, अनुसूया, तारा, मंदोदरी, त्रिजटा, आदि सत्कोटि का पात्र हुन् यी सबै अफ्ना संतानलाई उच्च संस्कार दिने ममतामयी, पतिपरायणा, धर्म-संस्कार-संस्कृति गर्ने, स्वाबलंबी, कष्ट दुखको सामना गर्ने, समाजमा उच्चादर्श स्थापित गर्ने महिमामयी नारी को रूपमा पाठकों अघि आउँछन्।

अस्थिर पात्र

रानी कैकेयी अस्थिर पात्र हुन्। उनको चरित्र लोभमा ढलपलाउँछ उनी परिस्थितिअनुसार व्यवहार गर्छिन। यसैले गर्दा मंथराको कुरा सुनेर आफ्नो छोरा भरतलाई राजा बनाउनका लागि उनी रामलाई वनवास दिने कार्य गर्छिन्। तर उसको यो कर्म सँधैका लागि उसको चरित्रमा रहँदैन। यो पश्चातापको आगोमा जलेर पवित्र भएको पाइन्छ। यसले के संदेश बोकेको छ भने हामिबाट कुनै गल्ति भएमै त्यसको परिमार्जन गर्न सकिन्छ।

3.असत पात्र

रामायणमा सूर्पणखा और मंथरा जस्ता असत्पात्रों पनि देखिन्छन्। मंथरा एउटा कुटिल पात्र हुन्, उसले गर्दा एउटा राजपरिवारले ठुलो विपत्ति भोग्नु पर्यो। राक्षसराज रावण की बैनी सूर्पणखा निर्लज्ज र उच्छृंखल पात्र, जो मर्यादाका सबै मापदंडहरूको सीमा पार गर्न लाँघने तयार देखिन्छिन त्यसैले आफ्नो नाक कटाउनु पर्यो।

4. भक्त पात्र

भानुभक्तले आफ्नो समयको नारी लाई लिएर अबला, कमजोर, पुरुष की भोग्या भन्ने जुन सामाजिक सोच थियो त्यसलाई चुनौति दिँदै नारीलाई मोक्ष की अधिकारिणी को रूपमा  चित्रित गरेका छन्। भानुभक्तले नर, नारी, जड़, चेतन सबैलाई ईश्वर भक्ति का अधिकारी बताएका छन्। तपोशिरोमणि स्वयंप्रभा र प्रभु चरणमा समर्पित भक्तिन शबरी नारी भक्त को प्रतिनिधित्व गर्ने भक्त पात्र हुन्। यी नारी कुनै पुरुषमा आश्रित न भएर स्वावलंबी, स्वाभिमानी, तपोसाधना गर्ने, ममतामयी नारी पात्र के रूप में पाठक सामु आउँछन

5.राक्षसी पात्र

सुरसा, सिंहिका, ताड़का मायावी राक्षसी पात्र को रूपमा समाज के एउटा वर्ग को प्रतिनिधित्व गर्छन्।

भानुभक्तको रामायण एउटा धार्मिक पुस्तक मात्रै नभएर एउटा सम्पूर्ण युग समेटेको एउटा अदभुत कृति हो। यसमा राजनीति को पनि राम्रो व्याख्या र आदर्श पाइऩ्छ। आज पनि सुशासनको निम्ति रामराज्यको उदाहरण लिइऩ्छ। आज पनि छोरी-बुहारीलाई अर्तिदिँदा सीता-मंदोदरी जस्ता हुनु भनिन्छ। आज पनि राम-लक्ष्मण,भरत शत्रुघ्नजस्ता छोरा हउन भनिन्छ। हनुमान जस्तो सेवक, सुग्रीवको जस्तो मित्रता होस् भन्ने कामना गरिन्छ यसरी यस महाकाव्यका जम्मै पात्रहरूले हामि गोर्खाली नेपाली भाषीहरूलाई आजसम्म दिशा दिने कार्य गरेका छन्।

हुन त भानुभक्तलाई लिएर समय समयमा विभिन्न तर्कहरू गरिएका पाइन्छन। तर म के भन्न चाहन्छु भने कुनै कृति त्यतिखेर सफल हुन्छ जब त्यो साधारण भन्दा साधारण मानिसले पढछ, बुझ्छ र त्यसका कुराहरू जीवनमा ग्रहण गर्छ। आज भानुभक्तको रामायण घर-घरको शोभा बनेको कुरालाई नकार्न सकिँदैन। यसलाई पूजास्थानमा राखेर धूप-बत्ती जलाइन्छ। रामायण सिरियल आउँदा गाँउ-गाउँ, शहर शहरका का जनताले प्रेमपूर्वक हेर्छन। ठुला-बडाले आशिशमा रामायणका पात्रहरूको नाम लिएन्छ। जनसाधारणमा यत्रो ठुलो स्वीकृतिले रामायणलाई लिएर उठेका तर्क-वितर्कहरूलाई आफैं निरस्त गरिदिन्छन्। नेपाली रामायणमाथि अझ शोध-अनुसंधान हुन बाकीनै छ।