22 सितंबर, 2020

पूर्वोत्तर भारत के हिंदी कलमकारों का दायित्व

 

             पूर्वोत्तर भारत के हिंदी कलमकारों का दायित्व

     



 

                             डा.गोमा देवी शार्मा

   मणिपुर

 

साहित्य मनुष्य के भाव एवं विचारों की अभिव्यक्ति का एक प्रमुख एवं प्रबल माध्यम है। किसी भी समाज की पहचान, उसके पास उपलब्ध उन्नत साहित्य से संभव है। साहित्य को समाज का दर्पण माना जाता है। साहित्यकार समाज में स्थापित मूल्यों, परंपराओं, सांस्कृतिक, राजनैतिक, धार्मिक, आर्थिक परिस्थितियों को अपनी लेखनी से अभिव्यक्ति देता है। उसका यह कार्य सदियों तक समाज को प्रतिबिंबित करता है। लेखक सदैव समाज का पक्षधर होता है। उसकी लेखनी समाज, संस्कृति और देशों को जोड़ती है, जिसमें काल, भूगोल, संस्कृति की बाधा नहीं होती।

किसी भी राष्ट्र के निर्माण और उसके उत्थान में अन्य कारकों की तरह उसका साहित्य भी एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। किसी देश को उत्कृष्ट और यथार्थ साहित्य देने का दायित्व भी उसके साहित्यकार का होता है। विविध जाति, विविध संस्कृति, परंपरा, भाषा से युक्त देश के हरेक प्रांतों को अपनी लेखनी से जोड़कर देश की अखंडता को मजबूती प्रदान करने के प्रति भी साहित्यकारों का महत दायित्व बनता है।

 

भारत के गौरवशाली अतीत का परिचय देने में सहित्य की भूमिका को नकारा नहीं जा सकता। संस्कृत की उच्च परंपरा, मध्यकाल की सामाजिक, आर्थिक, धार्मिक तथा सामाजिक व्यवस्था का परिचय इतिहास से कहीं ज्यादा साहित्य ने दिया है। प्रेमचंद ने भारतीय समाज के जिस यथार्थ रूप का परिचय अपनी लेखनी के माध्यम से दिया है उसके लिए भारत का इतिहास प्रेमचंद का सदैव ऋणि रहेगा।

भारत का पूर्वोत्तर क्षेत्र विविधताओं का आगार है। भाषिक पृथकता के कारण लंबे समय तक यह राष्ट्र की प्रमुख धारा से कटकर रहने को मजबुर रहा। यहाँ की बोलियाँ, भाषा, संस्कृति, जाति-उपजाति, पर्व, उत्सव, सामाजिक, आर्थिक, धार्मिक व्यवस्था, अराजकता, समस्याएँ आदि आज के हिंदी कलमकारों की लेखनी का केंद्र बनने की माँग करते हैं। भारत की स्वाधीनता प्राप्ति से पहले ही इन प्रांतों में हिंदी के प्रचार-प्रसार का काम शुरु हुआ था पर यथेष्ट मात्रा में पूर्वोत्तर आधारित हिंदी साहित्य का निर्माण अभी तक नहीं हुआ है।

 

पूर्वोत्तर राज्य प्रचुर संसाधन एवं अलौकिक प्राकृतिक वैभव की अनूठी छटा से लबरेज हैं। वर्तमान में पूर्वोत्तर भारत में आठ राज्य शामिल हैं - अरुणाचल प्रदेश, असम, मणिपुर, मेघालय, मिजोरम, नगालैंड, त्रिपुरा और सिक्किम। इन आठ राज्यों के विकास के लिए सन् १९७१ में केन्द्रीय संस्था के रूप में पूर्वोत्तर परिषद के गठन के बाद से भारत सरकार ने इस क्षेत्र में हिंदी की प्रगति के लिए प्रभावी योजना बनाना आरम्भ किया। पूर्वोत्तर भारत में राष्ट्रभाषा हिंदी के प्रति प्रेम में अप्रत्याशित रूप से वृद्धि हुई है। इन राज्यों में सेना, सुरक्षा से जुड़े हुए जवान, व्यापार के लिए हिन्दी भाषी क्षेत्रों से जाकर बस जाने वाले व्यापारी, पूर्वी उत्तर प्रदेश और बिहार से काम के सिलसिले में इन राज्यों में आए मजदूरों के कारण यहाँ हिंदी भाषा के प्रसार की शुरुआत को नकारा नहीं जा सकता। आजादी के बाद स्कूल, कॉलेज तथा विश्वविद्यालयों में हिंदी का पठन-पाठन की व्यवस्था से इन प्रांतों में हिंदी मोह का भाव विकसित हुआ है।

वर्तमान में सूचना और प्रौद्योगिकी के विकास के कारण पूर्वोत्तर भारत में हिंदी समझने एवं जानने वाले तथा बोलने वाले लोगों की संख्या पर्याप्त है। हिंदी सिनेमा की लोकप्रियता, हिंदी समाचार चैनलों की व्यापकता, हिंदी टेलिविजन के धारावाहिक आदि से इन राज्यों में हिंदी का प्रचार-प्रसार खूब हुआ है। समय -समय पर यहाँ हिंदी के मनिषियों ने इसके प्रचार-प्रसार के लिए जो प्रयत्न किए हैं, उनके योगदान को बी नहीं भूलना चाहिए। असम के गोपीनाथ बरदलै, मणिपुर के ललित माधव शर्मा, एस. नीलवीर शास्त्री, राधा गोविंद थोङाम आदि, मिजोरम में डॉ. जेनी, त्रिपुरा के रमेश पाल, आदि को हिंदी के प्रारंभिक प्रचार-प्रसार का श्रेय जाता है। यहाँ से चयोलपाउ, यूमसकैशा, सेंटिनल, दैनिक पूर्वोदय, प्रात: खबर, चाणक्य वार्ता, समन्वय पूर्वोत्तर जैसी पत्र-पत्रिकाएँ निकलती ही नहीं बल्कि इनके पाठकों की संख्या भी बडी तादाद में हैं।

 

मणिपुर हिंदी परिषद, मणिपुर राष्ट्रभाषा प्रचार समिति, नागालैण्ड राष्ट्रभाषा प्रचार समिति,मिज़ोरम हिंदी प्रचार सभा, आइजोल, केंद्रीय हिंदी संस्थान केंद्र गुवाहाटी, शिलांग, पूर्वोत्तर हिंदी साहित्य अकादमी तथा इन राज्यों में स्थित महाविद्यालय एवं विश्विद्यालय जैसी संस्थाएँ अनवरत हिंदी के प्रचार-प्रसार में अहर्निश कार्यरत हैं। इतना होने के बावजूद भी हिंदी साहित्य में पूर्वोत्तर भारत की अनुगूँज यथेष्ट मात्रा में प्रतिध्वनित नहीं हो रही है, यह दुखद बात है।

पूर्वोत्तर भारत के हिंदी रचनाकारों का दायित्व

पूर्वोत्तर भारत केंद्रित जनजीवन को अभिव्यक्त करने वाले साहित्य के समुचित विकास के बिना समग्र हिंदी साहित्य पूर्ण नहीं माना जा सकता। यहाँ की मिट्टी ने कर्मठ और एक-एक बलिदानी सपूतों को जन्म दिया है। इसकी मिट्टी का हरेक कण शहीदों के रक्त से रंजित है। उनकी शौर्य गाथा का समुचित सम्मान करते हुए उनको हिंदी वाङमय की दुनिया में स्थान दिलाने का महत कार्य पूर्वोत्तर में सक्रिय हिंदी के साहित्यकारों का कर्मक्षेत्र बनना चाहिए। सूदूर मणिपुर में स्थित लोकताक झील के सौंदर्य की आभा का प्रतिबिंब हिंदी साहित्य के दर्पण में प्रतिबिंबित करने का बीड़ा इन हिंदी साहित्यकारों को उठाना होगा। खाङ्खुई की रहस्यमयी गूफा, कौब्रू पहाड़ का सौंदर्य, यहाँ के पहाड़ों में नित कर्मठता का संदेश देती हुई, मुँह अंधेरे बागानों में जाकर सब्जी-फल तोड़कर उन्हें टोकरी में भरकर बेचने के लिए मीलों पैदल तय करके जीविकोपार्जन करने वाली नागा महिलाएँ, बड़े-बड़े बाजारों का संचालन करने वाली मणिपुरी महिलाएँ, पारंपरिक खेल, पहाड़ों में श्वेत क्रांति लाने वाली गोर्खा जाति की इमान्दारी की गाथा को वाणी देने का कार्य पूर्वोत्तर में सक्रिय हिंदी रचनाकारों का दायित्व है।

प्याज के परतों के समान पर्वत मालाओं की हार पहने नागालैंड का प्राकृतिक सौंदर्य, एक जाति होते हुए भी हरेक गाँव में अलग-अलग भाषा बोलने वाली यहाँ की नागा जाति, उनकी लोक कथाएँ, लोक गीत, लोक गाथाएँ, उनका रहन-सहन, उनकी संस्कृति, उनकी राष्ट्रीयता के भाव को वाणी देने का कार्य कौन करेगा? नागा जाति या हिंदी के रचनाकार?

 मेघालय की विविध जनजातियाँ हिंदी साहित्य का विषयवस्तु बनने की माँग कर रही हैं। यहाँ की मूल निवासी खासी जाति की मातृ-सत्तमात्मक सामाजिक ढाँचे से शायद ही शेष भारत परिचित हो। हिंदी साहित्य में पितृ-सत्तात्मक व्यवस्था के बारे में पढ़-पढकर ऊबे हुए पाठकों की मानस के भूख की तृप्ति के लिए एक अनूठा खुराक अवश्य प्राप्त होगा। इस समाज में पुरुष नारी को नहीं बल्कि नारी पुरुष को विवाह करके अपने घर लाती है और उनसे पैदा हुई संतानों को माँ की पहचान मिलती है। भारत के इस प्रांत की इस अनूठी सामाजिक व्यवस्था को वाणी देने की जरूरत है। जो भारतीय समाज पितृ-सत्ता को महत्व देता है, नारी को सिर्फ बच्चा जनने का साधन मानता है, समाज में पुरुषों से हेय मानता है, नारी के मानवाधिकार कुचलने पर अपनी शान समझता है, वह भी तो जान लें कि खासी जनजाति भारत की ही हिस्सा है। इस जाति की सामाजिक व्यवस्था शेष भारत को नारी सम्मान का पाठ सिखाने का साधन बन सकती है। माओसिनरम, चेरापूंजी जैसे स्थलों का प्राकृतिक सौंदर्य, लोक साहित्य आदि को हिंदी साहित्य में स्थान देने का काम हिंदी रचनाकारों का काम है।

अरूणाचल प्रदेश की विभिन्न जनजातियाँ जैसे आदी, कमान, मिश्मी, त्साङ-डाव ली, देओरी, निशि, बुगुन, वाङचो आदि के जनजीवन, रहन-सहन, परंपराएँ, सामाजिक ढाँचा, नारी की स्थिति, बड़े-बड़े ब्रांडेड विदेशी उद्योगों के दाँत खट्टे करने का दम रखने वाला अरूणाचल का बाँस उद्योग, जीवनादर्श मूल भारतीय सामाजिक ढाँचे बिल्कुल जुदा है। इसे अभिव्यक्ति देकर हिंदी के व्यापक मंच पर प्रतिष्ठित करने का दायित्व पूर्वोत्तर भारत के हिंदी रचनाकारों का है।

उच्च सामाजिक जीवनाआदर्श से परिपूर्ण असमीया समाज, लिंगभेद की कुरीति से परे है। यहाँ नारी पुरुष दोनों को समान आदर भाव मिलता है। जातिगत भेदभाव, छुआछूत जैसे सामाजिक कैंसर से परे इस समाज के उच्चादर्श, लोक संस्कृति, परंपराएँ, लघुउद्योग, महाबाहु ब्रहमपुत्र की गाथाएँ, सिद्धपीठ कामाख्या, तेजपुर की गाथा, मातृभूमि की सूरक्षा के लिए अपना लहू बहाने वाले और भारतीय इतिहास के द्वारा न पहचाने गए वीर सपूत, लाचित बरफूकन का शौर्य, रानी जयमती की वीरता की कहानी, अद्भुत प्राकृतिक सौंदर्य, इस राज्य में जीवन यापन करने वाली विभिन्न जनजातियाँ जैसे बोडो, मिशिङ, गोर्खा, राभा, कार्बी, आदि हिंदी लेखकों के कलम के विषय बनने की माँग करते हैं।

शांति और प्रगति का पाठ का आइना दिखाता सिक्किम भारत का ही हिस्सा है जहाँ की हर जनता सभ्यता का मंत्र प्रचार करती है। कंचनजंघा का सौंदर्य और धीरजता यहाँ के जनमन में परिलक्षित होती है। तिस्ता–रंगीत की कलकल ध्वनि, विभिन्न चिड़ियों की तानों से गूँजते हरे-भरे वनजंगल, नाथुला दर्रा, चारधाम की अद्भुत कारीगरी, छांगु के अदभुत सौंदर्य को अभिव्यक्ति देकर राष्ट्र की मुख्य धारा में सामिल करना हमारा दायित्व बनता है। अर्गेनिक कृषि, कर्मठ जीवन, पहाड़ों पर गूँजते लोक धुन हमारी लेखनी का कथ्य बनने की माँग करते हैं।

 

संपूर्ण पूर्वोत्तर में जीवन यापन करने वाली शांतिप्रिय गोर्खा जाति, उनकी कर्मठता, इमान्दारी, वीरता का चित्रांकन, निरंजन सिंह छेत्री, विष्णुलाल उपाध्याय जैसे स्वतंत्रता सेनानियों की वीरगाथा हमारी लेखनी के विषय बनने चाहिए। आज का भारतीय समाज नारी सम्मान, नारी विमर्ष, नारी चेतना के स्वर पश्चिम जगत से अनुभव करता है। उनके देखादेखि साहित्य का निर्माण करने का प्रयास करता हैं। लंबे समय तक भारतीय साहित्य में नारीवाद लेखन की कवायद चली है। ऐसे रचनाकारों को गोर्खा जाति की सामाजिक व्यवस्था झाँककर देखनी चाहिए जहाँ बेटी का जन्म बोझ नहीं बल्कि लक्ष्मी माता का पदार्पण माना जाता है। इस समाज मे माता-पिता भी बेटी के पाँव छूते हैं। कुछ लोगों के लिए यह हास्यादपद जरूर लगेगा पर गौर फरमाएँगे तो बात स्पष्ट होगी कि वास्तव में नारी सम्मान का इससे बढ्कर दूसरा और क्या हो सकता है।

भारत मे सिर्फ मिजोरम एक ऐसा प्रदेश है जहाँ रामराज्य केवल एक परिकल्पना भर न होकर साक्षात अनुभव करने की वस्तु के रूप में दिखाई देती है। यहाँ की दुकानदार रहित दुकानें (नघालॉह डॉर) किसको अद्भूत नहीं लगेंगे? इन दुकानों में कोई दुकानदार नहीं बैठता। ये विकसित देशों की आधुनिक तकनिकी युक्त भी नहीं हैं। एक कागज में सामन का दाम लिखकर रख दिया जाता है। खरीद्दार सामान लेता है और आवश्यक मूल्य निर्दिष्ट टोकरी या बक्से में डाल देता है। यह व्यवस्था आपको रामराज्य के लिए तुलसीकृत मानस की ओर नहीं बल्कि मिजोरम राज्य आपको हक़ीकत की दुनिया का दर्शन कराता है। यहाँ दुकानें विश्वास के दम पर चलती है। आत्म निर्भरता की ओर तेजी से कदम बढाती मिजो नारियाँ. तेजी से बढ़ता साक्षरता अभियान, वन्य संपदा से युक्त मामित, भारत का अमेजन कहा जाने वाला मुर्लेङ राष्ट्रीय उद्यान, वानतवाङ जल प्रपात, आकाश से बातें करती फवानपुइ चोटी हिंदी के रचनाकारों का विषयवस्तु बनने की माँग करती हैं।

त्रिपुरा के हरे-भरे रबर के जंगल, विभिन्न जातियाँ, अस्तित्व का खतरा सामना कर रहीं यहाँ की स्थानीय भाषाएँ, प्राकृतिक सौंदर्य, हरे-भरे जंगलों की खामोशी को चिरती हुई गूंजायमान होने वाली लोकधुनें, वन्य संपदा से भरे जंगल, इतिहास के वीर-वीरांगनाएँ आदि को अभिव्यक्ति देश की राजधानी की शान बढ़ाने वाले रचनाकार नहीं बल्कि, पूर्वोत्तर भारत के हिंदी रचनाकारों का दायित्व है।

भारत का पूर्वोत्तर राज्य अपनी विविधताओं से भरा है। यहाँ रहने वाली विविध जातियों की संस्कृति, परंपराएँ रहन सहन, भौगोलिक स्थिति, प्राकृतिक संपदा को अभिव्यक्ति देने का महत कार्य हिंदी कलमकारों को करना है। अधिकतर मंगोलियाई मूल के लोग होने के कारण भारत के अन्य हिस्सों के लोगों को यहाँ के लोग चीनी जैसे लगते हैं। यदा कदा ऐसी कई घटनाएँ सामने आती रहीं हैं, यह दुखद बात है। इस क्षेत्रीयतावाद, अलगाववाद आदि की खाई को पाटने का काम हमारी कलम ही कर सकती है, इसमें कोई संदेह नहीं है। आइए हम संकल्प लें कि हम पूर्वोत्तर की कण-कण का परिचय भारत व्यापक मंच पर रखें ताकि देश की हर जनता कोई किसी तरह के अलगाव को महसूस न करे। इस भूमि में विविध भाषाओं में रचित श्रेष्ठ सहित्य का हिंदी में अनुवाद किया जाए। तब जाकर पूरे भारतवासी को राष्ट्र की एक माला में पिरोने का हमारा उद्देश्य पूर्ण होगा। इस हेतु स्वयं को इस मिट्टी का हिस्सा मानते हुए दुनिया के सामने भारत की एकता, अखंडता को वाणी देना एवं दुनिया में इसकी शान बढाने हेतु इस क्षेत्र में कदम बढ़ाना पूर्वोत्तर के हिंदी रचनाकारों का अनिवार्य दायित्व बनता है।

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11 सितंबर, 2020

पूर्वोत्तर भारत : नेपाली सवाई काव्य

 

       पूर्वोत्तर भारत : नेपाली सवाई काव्य





  डॉ.गोमा देवी शर्मा

                                 मणिपुर

                                   संपर्क-8638505492

                                इमेल पता-gomaadhikaris@gmail.com

भूमिका

      भारतीय नेपाली साहित्य में सन 1887&1917 तक के कालखंड को मोतीरीम युग के नाम से अभिहित किया जाता है। मोतीराम भट्ट (1866-1996) के उदय के साथ ही नेपाली साहित्य में आधुनिकता की दस्तक सुनाई देने लगी। उन्होंने बनारस से गोर्खा भारत जीवन (1887) नामक पत्रिका का प्रकाशन किया। इस पत्रिका के प्रकाशन के साथ-साथ नेपाली साहित्य ने छापे अर्थात मुद्रण की दुनिया में प्रवेश किया। छापेखाने की सुविधा के कारण रचनाकारों का हौसला दुगुना होना स्वाभाविक ही था। इस क्रम में नेपाली साहित्य में विभिन्न विधाओं ने जन्म लिया। श्रृंगार, भक्ति, नीति, लक्षण विषयक ग्रंथों के प्रणयन के साथ-साथ कहानी, उपन्यास, नाटक, जीवनी, आलोचना, यात्रावृतांत जैसी विधाओं का सूत्रपात इसी परिवर्तन के परिणाम स्वरूप होता दिखाई देने लगा। पूर्वोत्तर भारत में रचित सवाई काव्य इस युग की एक महत्वपूर्ण उपलब्धि के रूप में प्राप्त है।

सवाई काव्य का परिचय

      सवाई नेपाली जातीय लोक छंद है, जिसमें मात्राओं एवं वर्णों की गिनती का झमेला नहीं रहता। साधारणतः इसमें 14 अक्षर होते हैं और चार, आठ तथा तेरह में विश्राम होता है। यह विशेष रूप में किसी वस्तु एवं घटना के वर्णन के लिए प्रयोग में लाया जाता है। यह हमेशा पंचों को संबोधन करके लिखा जाता हैं और इसे गाकर सुनाया जाता है। गेयता इसका प्रमुख गुण होता है। यथा-

सुन-सुन पंच हो म केही भन्छु ।

       मनिपुर्को धावाको सवाई कहन्छु ।। (श्लोक 1) 1

(सुनो-सुनो पंचगण मैं कुछ कहूंगा।

मणिपुर की लड़ाई की सवाई कहूँगा।।)

      नेपाली लोक जीवन में सवाई को विशेष स्थान प्राप्त है। यह मौखिक परंपरा से चलती आई है। इसका प्रारंभ कब हुआ यह बताना कठिन है, लेकिन लिखित रूप में संत ज्ञानदिलदास रचित उदयलहरी (1877) काव्य इसका प्रथम उदाहरण है। इतिहासविद देवी पंथी के अनुसार सवाई लेखन परंपरा के इतिहास को देखा जाए तो यह लोकगीत के अन्य अवयवों की तरह यह भी एक पुरानी विधा है। इसके लेखन कार्य का सीमांकन करना एक जटिल कार्य है फिर भी वर्तमान तक के खोज के अनुसार भारतीय नेपाली साहित्य में संत ज्ञान दिलदास के विक्रम संवत 1934, तदनुसार सन् 1877 में लिखित उदयलहरीको प्रथम सवाई काव्य कहा जा सकता है।2 संत ज्ञानदिलदास ने सवाई को निर्गुण भक्ति साहित्य की अभिव्यक्ति के लिए प्रयोग किया। इस परंपरा को तोड़ते हुए तुलाचन आले ने मणिपुरको लड़ाईको सवाई (1893) लिखकर सवाई को पहली बार वीर रस प्रधान काव्याभिव्यक्ति के लिए प्रयोग किया। परवर्ती कवियों ने इसके अलावा इसे सामाजिक यथार्थ जनजीवन चित्रण के लिए भी अपनाया। इसके उपरान्त एक निश्चित कालखंड तक सवाई परंपरा की धारा आगे बढ़ती हुई दिखाई देती है।

     भारतीय नेपाली साहित्य में सवाई काव्य का विशेष स्थान है। सवाई अधिकांश सैनिकों एवं अन्य साधारण कवियों द्वारा रचित काव्य हैं। इन रचनाओं में अधिकतर युद्ध, प्राकृतिक आपदाएँ एवं समाजिक कुव्यसनों का चित्रण हुआ है। इन रचनाकारों का पूर्ण परिचय प्राप्त नहीं है लेकिन वर्णमय विषय का देश काल और भूगोल का स्पष्ट जानकारी इन रचनाओं में दी गई है। सवाई काव्य पूर्वोत्तर भारत की प्रारंभिककालीन रचनाओं में आती हैं। इस क्षेत्र में नेपाली सहित्य की नींव रखने में इन रचनाओं का विशेष स्थान है।

पूर्वोत्तर भारत में रचित प्रमुख सवाई काव्य-  

1.    तुलाचन आले - मणिपुरको लडाईको सवाई (1893)

2.    धनवीर भंडारी - अब्बर पहाड़को सवाई (1894), भैंचालाको सवाई (1897)

3.    कृष्णबहादुर उदास’- आछामको सवाई (1908)

4.    गजवीर राना - नागाहिल्सको सवाई (1913)

5.    रामचंद्र शर्मा - कानी (अफीमको) सवाई (1933)

 

उपरोक्त सभी सवाई काव्यों में से रामचंद्र ढुंगाना रचित कानी (अफीमको) सवाई को छोड़कर सभी काव्य पंडित हरिहर शर्मा तथा सुब्बा होमनाथ, केदारजीनाथ द्वारा प्रकाशित सवाई पच्चीसा (1933) में संकलित हैं।

 

1.    मणिपुरको लड़ाईको सवाई

पूर्वोत्तर भारत का प्रथम सवाई काव्य मणिपुरको लडाईको सवाई के रचयिता का नाम तुलाचन आले था। वे 43/44 गोर्खा पल्टन के लांस नायक थे। इसमें सन् 1891 में हुए आंग्लो-मणिपुरी युद्ध का वर्णन किया गया है। इस युद्ध में वे अंग्रेजी फौज के पक्ष से लड़ने को बाध्य थे लेकिन उनके मन में स्वदेश तथा देशवासियों के प्रति प्रेम और अंग्रेजों के प्रति वितृष्णा का भाव होने का स्पष्ट संकेत इस रचना में दिखाई देता है। इस रचना में अंग्रेजों का गुणगान नहीं बल्कि उनकी दमन नीति एवं अत्याचारों का खुलकर वर्णन किया है।

.    इस रचना में कुल मिलाकर 28 श्लोक और 122 पंक्तियाँ हैं। यह मूल रूप में वर्णनात्मक शैली में रचित है। मूल रूप में यह एक ऐतिहासिक विषय प्रधान काव्य है जिसे कवि ने साधारण भाषा तथा गेय शैली में अभिव्यक्ति दी है। इसमें अंग्रेज सरकार द्वारा 33 गोर्खा राइफल्स को मणिपुर जाने का आदेश देना, अंग्रेजों की कूटनीति, मणिपुर के युवराज को बंदी बनाना, अंग्रेजी फौज के द्वारा दरबार में दाखिल होकर लूट मचाना, दोनों तरफ की सेनाओं के बीच हुए भारी युद्ध आदि का विषद् वर्णन किया गया है। इसकी भाषा सरल, बोधगम्य तथा ग्रामीण बोलचाल की नेपाली भाषा है। यथा-

सरकार्को हुकुम भयो मनिपुर्को जाऊ

मनिपुर्को राजासँग कन्सल गरी आउ।

अंग्रेजी सनको येकानब्बे साल् हो।

मारच महीनाको सत्ताइस तारीक हो।।(श्लोक 2)

 

 जोगराजलाई पक्र भनी हुकुम जब दीया।

हुकुम्पाई पल्टनले किल्ला घेरी लिया ।।

तहाँ पछी मनिर्पुले थाहा पनी पाया।

जोगराजको हुकुम पाई गोली चलाया।।(श्लोक 12)

 

जाने जती फौजले दरबार लुटी लिया।

लूटका शूरमा राजा भगाया।।

जोगराजका भाई सेनापति थीया ।

येक घडी पछी तहाँ तोप चलाया ।।(श्लोक 14)

 

पच्चीस तारीक अप्रेलमा भारी युद्ध भयो।

तृतालीस गोर्खले नाम चलायो।।(श्लोक 14) 3

 

 (अनुवाद - सरकार की आज्ञा हुई मणिपुर जाना है

मणिपुर के राजा से कन्सल्ट करके आना है।

अंग्रेजी सन का इक्यानबे साल है।

 मार्च महीना, सत्ताइस तारीक है।। (श्लोक 2)

 

युवराजको पकड़ने का आदेश जब दिया ।

आदेश पाकर पल्टन ने किला घेर लिया।।

इस बात का पता मणिपुर को चल गया ।

        युवराज के हुक्म से गोली चलाया ।। (श्लोक 12)

 

जाने वाले फौजों ने दरबार लूट लिया।

लूटके चलते राजा भाग गया।।

युवराज के भाई सेनापति थे।

एक घडी पश्चात वहाँ तोप चलने लगे ।।(श्लोक 14)

 

पच्चीस तारीक अप्रैल में भारी युद्ध हुआ।

तृतालीस गोर्खा ने नाम कमाया।) (श्लोक 28)

 

यह केवल युद्ध की विभीषिका वर्णन करने वाली रचना नहीं है बल्कि इसमें यह ऐतिहासिक तथ्य सामने आता है कि मणिपुर और अंग्रेजों के बीच युद्ध पच्चीस अप्रैल को हुआ था। मणिपुर में आज भी इस युद्ध को याद करते हुए 23 अप्रैल को खोङजोम दिवस के रूप में मनाया जाता है। मणिपुर के इतिहासविदों में आज भी इसकी तिथि को लेकर मतभेद है। इस रचना में इस बात का स्पष्ट संकेत दिया गया है कि खोङ्जोम युद्ध 25 अप्रैल 1891 को हुआ था।

 

2. अब्बर पहाड़को सवाई / भैंचालाको सवाई (1894)

      धनवीर भण्डारी कृत अब्बर पहाडको सवाई में कुल मिलाकर 927 श्लोक हैं। इसमें अब्बर पहाड़ अर्थात् अरूणाचल प्रदेश के आदिवासी आवर या अब्बर तथा इस्ट इंडिया कम्पनी के मध्य सन् 1893-94 हुए युद्ध का वर्णन है। अंग्रेजों के साथ हुए युद्ध में अब्बरों की वीरता, युद्ध में वीरगति पाने वाले सैनिकों की स्थिति का वर्णन, अब्बरों का साहस एवं युद्ध कौशल का वर्णन, युद्ध से उत्पन्न त्रासदी, जनता की दयनीय स्थिति आदि का चित्रण सजीव बन पड़ा है-

जानी न जानी कथक जोऱ्याको।

धावाको समाचार जाहेरि गऱ्याको।।

थियो सन् अठार चौरानब्बे साल

अलीकती सुन्नु हवस् दुश्मनको हाल।।3।।

उड़न लाग्यो तोप गोला बन्दुकका पर्रा।

भेटिए छ बल्ल अब आँखा भया टर्रा।।

तोपका गोला जाँदा किल्ला भित्र पस्थे।

अलि अलि अब्बरले जङ्गलतिर सर्दा।। (श्लोक 43)

डुकु बस्ती पोलीकन सोलोक बस्ती तऱ्यो।

बेलुकाको पाँच बजे धावा गर्नु पऱ्यो।।

किल्लातिर जान फौज कदम बढाउँछन।

         माथिबाट अब्बरले ढुङ्गा लडाउँछन्।। 4 (श्लोक 96)

     (भावार्थ- जाने अनजाने में मैं इन पंक्तियों के माध्यम से युद्ध का हाल लिख रहा हूँ। सन 1894 साल की बात है। मैं दुश्मन का हाल सुना रहा हूँ। चारों ओर तोप, गोले, बंदुकें चलने चलने लगीं। किसी को गोली लगी है। उसकी आँखें बंद होने वाली हैं। तोप के गोले चलने पर अब्बर लोग किले के अंदर घुस जाते थे। कुछ जंगल की ओर छुप जाते थे। डुकु बस्ती को ध्वस्त करके अंग्रेजी फौज ने सोलोक बस्ती की ओर कूच किया। शाम के पाँच बजे वहाँ भारी युद्ध हुआ। जब फौज ने किले की ओर कदम बढ़ाया तो ऊपर की ओर से अब्बरों ने पत्थर बरसाने शुरू किए।)

     भैंचालाको सवाई में सवाईकार भण्डारी ने सन् 12 जून 1897 में शिलांग में आए भूकंप की त्रासदी का वर्णन किया है। यथा-

शिलांगको ठुलो टापू सुनाकुरूङ् थीयो ।

पहरा हल्लाएर सबै झारी दियो ।।

चुराडिम् चेरापुंजी खसीयाको बस्ती।

भताभुंग गरीदियो भुमि चल्दा अस्ति।।

डिब्रुगढ गोहाटी अरू रांगामाटी ।

धुपगढीजात्रा पुरै सबै गयो फाटी ।।

पत्ताल फुटीकन निस्की गयो जल ।

छताछुल्ल हुन गयो मधेषको थल ।।5

(भावार्थ- सुनाकुरूङ शिलांग का बड़ा टापु था। भूकंप का झटका इतना जोरदार था कि पहाड़ भी हिल गया और सब चकनाचूर हो गया। चुराडिम, चेरापुंजी खसीया बस्ती सभी भताभुंग हो गए। डिब्रुगढ़, गुवाहाटी, रांगामाटी, धुबगढ़ी सब जगह जमीन फट गई। धरती में हर तरफ दरारें ही दरारें दिखाई दे रही हैं। धरती फटकर पाताल का पानी बाहर निकल आया है। मैदानी भू-भाग में चारों ओर जल ही जल दिखाई दे रहा है।)

 

4. आछामको सवाई

     इस कृति के रचयिता कृष्णबहादुर उदास डिब्रुगढ़, असम के निवासी थे। उनकी रचना आछामको सवाई में प्रयुक्त असमिया शब्द भी उन्हें असमवासी होने का प्रमाण देते हैं। प्रारंभ में असम को नेपाली जनता आछाम के नाम से संबोधित करती थी; इसीलिए सवाईकार ने भी असम को आछाम शब्द से संबोधित किया है। इस सवाई में 31 श्लोक हैं। कवि ने असमीया नेपाली जनजीवन में व्याप्त कुव्यसन को अपना काव्य विषय बनाया है। समाज के कुछ लोग अफिम के नशे में पड़कर अपना घर-परिवार, अपना जीवन, बाल-बच्चों का भविष्य, सामाजिकता सब कुछ दाँव पर लगा रहे हैं। कवि ने ऐसे असामाजिक तत्वों से समाज में पहुँचने वाली क्षति के प्रति खेद प्रकट किया है-     

सुन सुन पंच हो म केहि भन्छु

आछामको हाल खबर विस्तार कहन्छु।।(श्लोक 1)

चार दामको उत्पत्ति छैन चार आनाको खर्च।

कानि खाई बिग्रन लाग्ये नेपाली सबै भ्रष्ट ।।

अछामको नेपाली भासाले केरालाई कोल।

कानि नखाई सकिन्न भन्छ दुनिया लोक ।। (शलोक 4)6

 

(अनुवाद- सुनो सुनो पंचगण मैं कुछ कहूँगा।

असम का हाल खबर विस्तार से कहूँगा।।

चार आने की उन्नति नहीं चार पैसे का खर्च।

अफीम पीकर सारे नेपाली हो गए हैं भ्रष्ट।।

असमीया नेपाली कहती केले को कोल।

बिना अफिम जी न पाए यह दुनिया लोक) ।।

       इसमें तत्कालीन असमीया नेपाली जन-जीवन,  रहन-सहन,  बोलचाल आदि के साथ भौगोलिक तथा आर्थिक पक्ष को भी वर्ण्य-विषय बनाया गया है।

 

5. नागाहिल्सको सवाई (1913)

     नागाहिल्सको सवाई के रचयिता गजवीर राना हैं। इस रचना में सन् 1913 में इस्ट इंडिया कंपनी तथा नागालैण्ड के नागाओं के बीच हुए युद्ध का वर्णन किया है। इस युद्ध में कवि स्वयं शामिल थे, इसीलिए उनका युद्ध वर्णन सजीव बन पड़ा है। इस युद्ध में वे घायल हो गए थे। इसका प्रमाण चौथे श्लोक में प्राप्त होता है। इसमें गजवीर राना ने नागाहिल्स में रहने वाले नागाओं के युद्ध कौशल, अंग्रेज अफसरों का सेना को नागाहिल्स जाने की आज्ञा, सेना का मनोबल बढ़ाने के लिए उन्हें मेडल का प्रलोभन देकर युद्ध के लिए तैयार करना, युद्ध में मची त्राहि-त्राहि, सेना को खाने पीने की, पानी की कमी से उत्पन्न त्रासद स्थितियाँ, नागाओं के साथ-साथ सैनिकों के मारे जाने से उनके बाल बच्चों की दयनीय स्थिति आदि का सजीव वर्णन इस सवाई में किया गया है। कुछ उदाहरण द्रष्टव्य है-

तेत्तीस कोटि देवता भद्रकाली माई।

नमस्कार गर्दछु चरण समाई।।

सुन सुन पाँच हो! म केहि भन्छु।

दोस्रोपल्ट नागा हिलको लड़ाई कहन्छु।।(श्लोक 2)

 

दाउरा भाला धनुका र बन्दुकका गोली।

हान्न लाग्यो नागाहरू इष्टान खोली ।।

कुरूक्षेत्रको महाभारत जस्तो ।

चार घण्टासम्म लडाई भयो तेस्तो ।। 7

(भावार्थ- हे तैंतीस कोटि देवता, भद्रकाली माई! मैं आपके चरणों को पकड़कर नमस्कार करता हूँ। सुनो पंचो! मैं कुछ कहना चाहता हूँ। दूसरी बार नागाहिल्स में हुए युद्ध का हाल कहता हूँ। लकड़ी,  भाला,  धनुष,  बन्दुक आदि अस्त्र-शस्त्रों को खोलकर नागा लोग अंग्रेज सेना पर प्रहार करने लगे। लगातार चार घण्टे तक यह युद्ध चला। यह इतना घमासान हुआ कि कोई मामुली युद्ध नहीं बल्कि कुरूक्षेत्र का महाभारत जैसा प्रतीत हो रहा था।)

6. कानीको सवाई

   इस कृति के रचनाकार रामचन्द्र शर्मा असम के निवासी थे। उनके द्वारा लिखित यह सवाई काव्य सन् 1933 में सर्वहितैषी कम्पनी बनारस द्वारा प्रकाश में आया। यह मूलतः सुधार, संस्कार के भाव पर आधारित है। इसमें समाज में अफीम पीने की आदत से होने वाली हानि को दर्शाते हुए लोगों को इस दुर्व्यसन से दूर रहने का उपदेश दिया गया है। उसमें जातीय उत्थान के लिए कार्य करने की बात भी कहीं गई है।

1.कानी खाँदा शक्ति छिनमा हात्ति किन्ने दिन्छ। 7

 

2.बन्धु जनमा करजोड़ी शरणमा पर्छु।

कानि त्यागे मित्रले आनन्दमा पर्छु।। 8

(भावार्थ-1.अफीमची अफीम के नशे में सब कुछ गँवा देता है। वह नशे मे पड़कर हाथी खरीदने के सपने देखता है।

2. कवि कहता है कि मैं अपने बन्धुजनों की शरण में हाथ जोड़कर विनती करता हूँ कि आप लोग इस व्यसन से दूर रहिए। आप लोगों के इस कार्य से मुझे असीम शांति प्राप्त होगी।)

उपरोक्त रचनाओं के अलावा समग्र भारतीय नेपाली साहित्य में इस काल खंड में लिखे गए अन्य सवाई काव्यों में दिलु सिंह राई कृत पैह्रो को सवाई डाकमान राई कृत पैह्रोको सवाई, (1899), मनी राज शाही रचित चरीको सवाई, (1909), चेतनाथ आचार्य कृत काशीको सवाई, धर्मसिंह चामलिङ् रचित मनलहरी (1919) सुन्दर सिंह रचित आनन्द लहरी आदि इस दिशा की महत्वपूर्ण रचनाएँ हैं।

      उपसंहार

     पंचों को संबोधित करके लय में गाते हुए प्रस्तुत किए जाने वाले सवाई काव्य भारतीय नेपाली साहित्य को पूर्वोत्तर भारत की महानतम देन है। जिस काल में नेपाली साहित्य का केंद्र बनारस श्रृंगारिक परंपरा में डूबकर जनमानस के सुख-दुख को नज़र अंदाज करते हुए विलसिता के रंग में डूबा हुआ था, वहीं पूर्वोत्तर भारत के सवाईकार जनजीवन के सुख-दुख, युद्ध की विभीषिका, प्राकृतिक आपदा जैसी विषयों पर यथार्थ अभिव्यक्ति दे रहे थे। ऐसे समय में ये रचनाकार पढ़े-लिखे पंडित न होकर साधारण सैनिक या साधारण जनता में से थे, जिन्होंने लोकछंद, लोकभाषा और लोक शैली में युद्ध की विभीषिका, प्राकृतिक आपदा, तथा इनसे प्रभावित जन-जीवन का यथार्थ चित्रण करके अपनी प्रगतिशीलता का परिचय दिया है। इनकी भाषा भले ही जनप्रचलित नेपाली भाषा है लेकिन भाषा में चित्रात्मकता के गुण मौजूद दिखाई देते हैं। इसकी अभिव्यक्ति के लिए इन कवियों ने जन साधारण द्वारा व्यवहार में लाई जाने वाली सहज बोधगम्य और सपाट नेपाली भाषा को माध्यम बनाया है। भारतीय नेपाली साहित्य इन सवाई काव्य-ग्रन्थों का ऋणि है।

 

सन्दर्भ सूची :

1. मणिपुरको लड़ाईको सवाई, असमेली कविता यात्रा, सं - नव सापकोटा, नेसाप, असम, पृ. - 91

2. देवी पंथी - भीमकान्त उपाध्याय - आँखीझ्यालबाट हेर्दा, पृ. 33, नेपाली लेखक सहकारी समिति, सिलगढ़ी,1987

3. मणिपुरको लड़ाईको सवाई, असमेली कविता यात्रा, सं - नव सापकोटा, नेसाप, असम, पृ.- 91 पूर्ववत - पृ. 87, 88, 89

4. अब्बर पहाडको सवाई, असमेली कविता यात्रा, सं - नव सापकोटा, नेसाप, असम, पृ.- 91, 92, 94

5. भीमकान्त उपाध्याय - आँखीझ्यालबाट हेर्दा, पृ. 33, नेपाली लेखक सहकारी समिति, सिलगढ़ी,1987, पृ. 85

6. पूर्ववत - पृ. 53

7. नागाहिल्सको सवाई, असमेली कविता यात्रा, सं - नव सापकोटा, नेसाप, असम, पृ.- 84   

6. भीमकान्त उपाध्याय - आँखीझ्यालबाट हेर्दा, पृ. 33 8. पूर्ववत - पृ. 48

7. पूर्ववत - पृ. 53

अन्य सहायक संदर्भ ग्रंथ

1. भारतीय नेपाली साहित्यको विश्लेषणात्मक इतिहास - डॉ. गोमा देवी शर्मा, गोर्खा ज्योति प्रकाशन, प्र. सं, 2018

2. नेपाली साहित्यको परिचयात्मक इतिहास - डॉ. घनश्याम नेपाल - नेपाली साहित्य प्रचार समिति सिलगढी,1981

3. मणिपुरमा नेपाली साहित्य : एक अध्ययन - डॉ. गोमा दे.शर्मा, गोर्खा ज्योति प्रकाशन, 2016

4. भारतीय नेपाली साहित्यको इतिहास - असीत राई, श्याम ब्रदर्श प्रकाशन, दार्जीलिङ, 2004